ब्लॉग आर्काइव

बुधवार, 23 अप्रैल 2014

मेरा पहला दोस्त किताब था

आज विश्व पुस्तक दिवस पर मेरे इस पुराने दोस्त को याद कर रहा हुँ । बचपन मेँ जब कहीँ मुझे किताब मिलजाते मेँ उनका हाल किसी शत्रृ के भांती करता था । फिर किताबोँ से मुझे कोई खास लगाव न थे पर स्कुल मेँ आते ही मेँ किताबोँ की एहमियत समझने लगा । फिर थोड़ा बड़ा होनेपर काहानी पढ़ने के शौख जगा, उनदिनोँ ओडिआ भाषा मेँ मीनावजार के नाम से एक पत्रिका आया करता था जो आज भी प्रकाशित होता हे । इस पत्रिका मेँ खास त्वौर पर बच्चोँ के लिये लेख छपते हे और मैनेँ लगातार 6 साल मनीअर्डर से इस किताब को मंगबाया था । चंदामामा के नाम से एक और पत्रिका भी उनदिनोँ काफी मशहुर हुआ था जो आज भी चेन्नेई से 16 भाषाओँ मेँ प्रकाशित होता हे । चंदामामा इतना फैमस था की किताबोँ के दुकान मेँ जैसे ही नया अंक आया की खाली हो जाया करता था । हाईस्कुल के दिनोँ मेँ एक सहपाठी अश्विन से मांग मांग कर चंदामामा पढ़ा करता था और कईबार तो हम लोग क्लास मेँ चुपचुपके पढ़करते थे । ऐसा नहीँ की मेँ सिर्फ किताब पढ़ता था परंतु किताब मेरा पहला दोस्त था जिसके कारण मेरे दिन कट जाता था । आज जब मेँ यह लेख लिख रहा हुँ मुझे हमारे अपर प्राईमेरी टिचर श्री अमर मल्लिक याद आ रहे हैँ जिनके कारण कुछ दिन के लिये ही सही पर हमारे स्कुल मेँ लाईब्रेरी किताब मिलने लगा था । 2 साल बाद एक संस्था नेँ लोगोँ को जागरुक बनाने के लिये किताबोँ का अस्थायी लाईब्रेरी खोला । हमारे गांव मेँ आदि पंडा जी के यहाँ उनकी बहन इस संस्था कि और से इसे संचालन कर रही थीँ । तब मेँ और बहन शाम होते ही वहाँ चुपके से जाते थे और पुराने किताब लौटाकर नया किताब ले आते थे । एक दिन पिताजी ने हमेँ रंगेहातो पकड़ा और हमेँ उसदिन बहुत मार पड़ी थी । माईनर मेँ आते आते मेँ पढ़ाई कि और ज्यादा ध्यान देनेलगा पर काहानी पढ़ने का नशा अब भी बरकरार था । माईनर मेँ लाईब्रेरी किताब मिलते थे और वहाँ से लिया गया यादगार किताब था "ट्रोजान अश्व" इसमेँ ट्रय युद्ध के बारे मेँ लिखा गया हे । जवानीँ मेँ कदम रखते रखते अब मुझे कविता आकर्षित लगने लगे फिर फिल्मी गानोँ का शौख चढ़ा तो किताब पढ़ने के लिये वक्त नहीँ मिल पाता था । आज इंटरनेट के कारण जब भी मन करता हे Ebook पढ़लेता हुँ पर पहले जैसा मजा नहीँ आता क्युँ किताब तो आखीरकार किताब हे ना...