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शनिवार, 22 अगस्त 2015

कथा पांवटा साहिब की....भाग-2

16वीँ सदी मेँ भौगलिक परिस्थितियाँ ऐसी थीँ कि विलासपुर से श्रीनगर(गढ़वाल) जाने के लिये यमुना नदी पार करना होता था और पांवटा बीच मेँ पड़ता था ।

राजा भीमचंद को बारात लेकर इसी रस्ते से गुजरना था । बारत मेँ अस्त्र शस्त्रोँ से सज्जित हजारोँ सैनिकोँ को देखकर गुरु गोविँद सिँह का माथ ठनका ।
वो समझगये राजा भीमचंद के इरादे नैक नहीँ अतः सरक्षात्मक नजरिया अपनाते हुए राजा भीमचंद ,उनके पुत्र और चंद वरिष्ठ अधिकारीओँ को पावंट के निकट नाव से यमुना पार करने कि इजाजत तो दे दी ,लेकिन राजा भीमचंद की असली बारत यानी सैनिकोँ को एक घुमावदार लंबे रस्ते से गढ़वाल जाना पड़ा । इस घटना से युद्ध कि संभावनाएँ और बढ़गई ।


विवाह स्थल पर पहँचते ही भीमचंद ने पांवटा मेँ घटित घटना से राजा फतेहशाह को अवगत कराया । उसने कहा कि वह इस गुस्ताखी का बदला लेकर रहेगा । अपधे समधी की बात सुनकर फतेहशाह के माथे पर भी आक्रोश की लकीरेँ खिँच आई ।

विवाह स्थल पर अनेक पाहाड़ी राजा उपस्थित थे । रस्मेँ पुरी होते ही राजाओँ ने नवदंपति को तोहफे भेँट करना शुरु किए ।
जब दीवान नंदचंद जी , गुरु गोविँद सिँह द्वारा भेँट किया गया "ताम्बोल" फतेहशाह को देनेगये तो भीमचंद ने चेताया समधी जी इस उपहार को लेगेँ तो अछा नहीँ होगा ।
वक्त के नजाकत को देखकर फतेहशाह ने वह उपहार लौटादिया ।

पहाड़ीराजाओँ को ये माजरा समझनहीँ आ रही थी ! भीमचंद ने सबकी जिज्ञासाओँ को सुलझाते हुए उन्हे यह कहकर भड़काया कि गोविँद सिँह सभी क्षेत्रिय राजाओँ पर एकछत्रराज स्थापित करना चाहते है ।

भीमचंद पाहाड़ीराजाओँ को भड़काने मेँ सफल हो गया ।
शादी मेँ सामिल सभी राजाओँ ने एक संयुक्त प्रस्ताव पारित किया कि अब उनकी संयुक्त सेनाएँ गुरु गोविँद सिँह पर एक साथ हमला बोलेँगी ।
इस विवाहोत्सव मेँ किन्ही कारणवस नाहन के राजा मेदनी प्रसाद सामिल नहीँ हुए थे ।

नंदचंद ने पांवटा पहँचकर गुरुजी को शादी मेँ पारित प्रस्ताव का ब्यौरा दिया परंतु गुरु गोविँद सिँह जी को इससे कोई आचंबा नहीँ हुआ वे युद्ध के तैयारीओँ भेँ लगगये ।
उनदिनोँ गुरुजी के सेनामेँ 5000 से अधिक योद्धा थे जिनमेँ जीतमल ,संगेशाह ,गोपालचंद ,माहरीचंद ,गंगाराम ,किरपालचंद ,नंदचंद ,पुरोहित दयाराम तथा साहिब चंद अपनी वीरता के लिये विख्यात थे ।
कुछ पठान भी गुरु गोविँद सिँह के साथ थे ।

उधर पाहाड़ी राजाओँ की संयुक्त सेनाओँ मेँ कटोच के किरपाल ,गुलेर के गोपाल ,हिँदुर के हरिचंद ,चंदुल के गाजीचंद ,दाढवार व जसवाल के राजा ,गढ़वाल के राजा फतेहशाह व विलासपुर नरेश भीमचंद ने मिलकर युद्ध के लिये पांवटा कुच किया ।
अभी युद्ध होने ही वाला था कि गोविँद सिँह जी के सेनामेँ सामिल पठान सैनिक एकाएक पैँतरा बदलकर दुशमन से जा मिले ।
हारामखोर पठानोँ ने पहाड़ीराजाओँ के ये पट्टी पढ़ाया कि गोविँद सिँह का असली ताकत हम पठान थे अब उन्हे हराने मेँ कोई मुस्किल नहीँ है ।
पठान सैनिकोँ द्वारा ऐन वक्त पर विश्वासघात करने से गोविँद सिँह को दुःख हुआ परंतु इसी बीच उन्हे 700 छापामार युद्ध मे माहिर पठान सैनिक मिलगये । इससे गुरुजी के सेना का मनोबल दुना हो गया ।
6 अप्रेल 1687 को पांवटा साहिब के निकट भंगाणी के मैदान मेँ पहाड़ी राजाओँ की सेनाओँ और गुरु गोविँद जी के सेना मेँ युद्ध छिड़गयी ।

घमासान युद्ध हुआ ,
गुरु ने पहला हमला उन विश्वासघाती पठानोँ पर किया ।
युद्ध मेँ एकवार ऐसा लगा कि पहाड़ी सेना कि जीत हो जायेगी । च्युँकि हिँदुर नरेश हरिचंद आक्रमक बने हुए थे परंतु उनके साथीदार राजाओँ को हार ही नसीब हुआ ।
जसवाल व दाढ़वार के राजा रणक्षेत्र से भाग खड़े हुए । चंदेल के राजा ने भी हार मान लिया और तभी गुरु गोविँद सिँहजी के एक तीर ने हरिचंद को मोत की गोद मेँ सुला दिया ।

इससे भीमचंद व फतेहशाह युद्ध क्षेत्र से पलायन कर गये

ओर इस प्रकार गुरु गोविँद सिँह व उनके सेना ने भंगाणी के मैदान मेँ सबके छक्के छुड़ादिये ।

भंगाणी के जिस मैदान मेँ यह युद्ध हुआ था वहाँ आज भंगाणी साहिब के नामसे भव्य गुरुद्वारा बना हुआ है ।
इस गुरुद्वारा का निर्माण 1825 मेँ बसवा सिँह नामक एक श्रधालु द्वारा बनवाया गया है ।

कहाजाता है कि भंगाणी युद्ध मेँ विजयोल्लास स्वरुप गुरुजी ने एक उत्सव आयोजन करवाया था जिसमेँ नाहन के राजा मेदनी प्रसाद भी सामिल हुए थे ।
इस उत्सव को आज भी प्रतिवर्ष फाल्गुन पुर्णिमा को होल्ला महोल्ला के रुप मे मनाया जाता है । उत्सव मेँ गुरु ग्रंथ साहिब की शोभ यात्रा पांवटा साहिब के विभिन्न क्षेत्रोँ से निकाली जाती है ।
गुरुद्वारा साहिब मेँ निशान साहिब पर नया वस्त्र पहनाया जाता है । गतकाबाजी इस उत्सव का मुख्य आकर्षक होता हे,जिसमेँ कुशल योध्या अस्त्र शस्त्र विद्या का प्रदर्शन करते है । इस उत्सव मेँ शहरी व ग्रामीण लोक जीवन की मिली जुरी झाँकी देखने को मिलती है ।

***** #उत्तरप्रदेश और #हरियाणा की सीमाओँ से सटा #पांवटासाहिब का यह गौरवमय इतिहास सभी #हिन्दु याद रखेँ हृदयगंम करेँ .इससे सीख लेँ
और मिलजुलकर रहेँ ****


कथा पांवटा साहिब की... भाग 1

आनंदपुर साहिब मेँ एक बार गुरुगोविँद सिँह जी से मिलने तत्कालिन विलाशपुर राजा भीम चंद का आना हुआ ।
भीमचंद का वहाँ भव्य स्वागत हुआ ,
गुरुजी ने उन्हे दुसरे राजाओँ के द्वारा दिए गये नायाब उपहारोँ को दिखाया जिसमेँ #असम राजा द्वारा दिया गया सफेद हाथी "प्रसादी" भी था ।
राजा भीमचंद के मनमे प्रसादी को देखकर लोभ उत्पन हुआ जिसे गोविँद सिँह जी ताड़ गये परंतु अतिथी धर्म निर्वाह हेतु उन्होने कुछ नहीँ कहा !
अनकोँ उपहारोँ समेत भीमचंद जी स्व राज्य लौट तो आये परंतु उनके मन मेँ प्रसादी के पाने को पाने की लालसा बढ़गया था ।

1645 सदी मेँ गुरुगोविँद सिँह जी सिरमौर रियासत के मीरपुर गाँव मेँ ठहरे हुए थे
मीरपुर के शासक उन दिनोँ मेदनी प्रसाद थे , उन्हे पताचला कि गुरुजी उनके राज्य मे आये हुए है । मेदनी प्रसाद ने गोविदँ सिँह जी को अपने मंत्र शोभा राम के हातोँ नाहन आने का निमन्त्रण दिया । गुरुजी ने निमन्त्रण सहर्ष स्वीकार कर लिया ।
17 वैशाख को गोविँद सिँह जी नाहन पहँचे । राजा मेदनी प्रसाद ने उनका स्वागत सत्कार पश्चात झिझकते हुए अपना समस्या प्रकट किया ।
सिरमौर के पूर्व मेँ टिहरी गढ़वाल के राजा फतेहशाह के साथ राजा मेदनी प्रसाद का अनवन चल रहा था ।

तो मेदनी प्रसाद ने गुरुजी से आग्रह किया कि वे नाहन ओर श्रीनगर के सीमा पर एक किला बनवा देँ इससे फतेह शाह के मनमानी पर अंकुश लगसकेगा ।

गुरु गोविँद सिँह ने राजा को कहा जहाँतक हो सके मिलजुल कर रहेँ व मिलकर मोगल सत्ता के खिलाफ लढ़ेँ ।
मेदिनी प्रसाद कि इछाओँ को सम्मान देते हुए सिरमौर रियासत मेँ यमुना किनारे पाहाड़ोँ के बीच सुँदर वृक्षोँ से घिरा एक स्थल उन्हे बहुत पसंद आया । यहीँ वे अपने घोड़े से उतरे और अपने पाँव इस धरती पर टिकाए । गुरु गोविँद सिँह के यहाँ पाँव टिकाने के कारण ही इस क्षेत्र का नाम पाँवटिका पड़ा, जो बाद मेँ अपभ्रंस होकर पाँवटा साहिब पड़ गया !!

मेदनी प्रसाद ने गुरुजी के रहने के लिये यमुना किनारे एक स्थान बनवा दिया । गुरुजी अपने परिवार को भी यहाँ ले आये ।
यहीँ उनके बड़े पुत्र अजीत सिँह का जन्म हुआ ।
पाँवटा साहिब को पौराणिक काल से ही पवित्र माना जाता हे । ऐसी मान्यता है कि सर्वप्रथम कैलास से अवतरित भगवन शिव को यहीँ ज्ञान प्राप्त हुआ था । उसके बाद वह कपालमोचन तीर्थ गे । देवी दुर्गावती भी कैलास पर्वत से उतरकर इसी मार्ग से स्वर्गलोक के राजा इंद्र के सहायतार्थ गई ।
यहीँ परशुराम का भगवन रामचंद्र से मिलन हुआ था । यहाँ से थोड़ी ही दुर ऋषि जमदग्नि की धर्म पत्नी रेणुका का सरोवर है । पावंटा से थोड़ी ही दूरी पर ऋषि मार्कण्डेय व कालपी ऋषि का तपस्थल है ।
स्थानीय लोगोँ मे ऐसी भी मान्यता प्रचलित हे कि यहाँ यमुना मे स्नान करने पर व्यक्ति हर पापोँ से सर्वथा मुक्त हो जाता है ।

बहरहाल गुरु गोविँद सिँह जी ने नाहन और श्रीनगर के बीच पाँवटा मेँ किला बनाया तो ये बात श्रीनगर के राजा फतेह शाह को नागवार गुजरा । वो गोविँद सिँह जी से मिलने पाँवटा आया और गुरुजी के व्यक्तित्व से प्रभावित हो गया ।
कहाँ वह झगड़ा करने आया था और कहाँ दोस्ती के बंधनोँ मेँ बंध गया ।
गुरुगोविँद सिँह ने मेदनी प्रसाद व फतेह शाह के बीच चलरहे मनमुटाव को दूर करते हुए उनमेँ संधि करवा दी । गुरुजी के मध्यस्दा पर फतेह शाह ने सिरमौर रियासत को उसके द्वारा दबाया हुआ भूभाग लौटा दिया ।
कुछ दिन पश्चात श्रीनगर नरेश फतेहशाह कि पुत्री का विवाह राजा भीमचंद के पुत्र के साथ होना निश्चित हुआ ।
ये भीमचंद वही था जिसके मनमेँ गुरुजी के हाथी को देखकर लालच आ गया था ।
फतेह शाह कि कन्या से विवाह तय होते ही उसने एक चाल चला ! अपने कुछ कारिँदे गुरु गोविँद सिँह जी के पास भेजकर उसने शादी के स्वागत समारोह के लिये प्रसादी हाथी को देने का अनुरोध किया ।
गुरु गोविँद सिँह को भीमचंद का युँ प्रसादी माँगना अछा नहीँ लगा सो उन्होने राजा के कारिँदोँ को खाली हाथ लौटा दिया ।
कारिँदो ने भीमचंद को उलटा सिधा कहकर और उकसाया वो यह सुनकर और आगबबुला हो उठा ।

बेटी की शादी का दिन निकट आते ही राजा फतेहशाह ने गुरु गोविँद सिँह को सपरिवार शादी मेँ पधारने का न्योता भेजा ।

उधर गुरुगोविँद सिँह को खबर मिला कि भीमचंद उनसे भीड़ने की तैयारी मेँ जुटा हुआ है ।

कहीँ शादी मेँ उन्हे देख कर राजा भीमचंद कोई बखेड़ा खड़ा न कर दे ,जिससे रंग मेँ भंग पड़ जाए .यह सोचकर गुरु गोविंद सिँह स्वयं शादी मेँ नहीँ गे और अपने दीवान नंदचंद के हाथ बहुमुल्य उपाहारोँ के साथ राज फतेहशाह के यहाँ भेज दिया ....

क्रमशः.....