ब्लॉग आर्काइव

मंगलवार, 13 दिसंबर 2016

दारुल ईस्लाम कि सच्चाई

-क्या कोई मुस्लिम जिसनें दारुल इस्लाम के लिए लाखों हिंदुओ का क़त्ल किया हो, क्या वो मरने के बाद हिंदुओ की मन्नतें पूरी करेगा"

सैयद सालार गाज़ी की क़ब्र के सामने हिंदुओ का माथा टेकना उन लाखों हिन्दू वीर योद्धाओं के साथ धौखा होगा जिन्होंने उस गाज़ी से लड़ते हुए अपने प्राण त्याग दिए,

आज के हिंदुओं का गाज़ी के सामने सर झुकाना उन लाखों माँओं के साथ विश्वासघात होगा जिन माँओं ने गाज़ी को रोकने के लिए अपने लाल खोए, उन अर्धांगिनियों के साथ विश्वासघात होगा जिन्होंने उस गाज़ी से लड़ने के लिये अपना सिंदूर उजाड़ा ।

लाखों हिंदुओ को मारने वाले गाज़ी के सामने सर झुकाने से बेहतर, मैं शमसान घाट की उन आत्मा के सामने सर झुकाना बेहतर समझूँगा जिसनें अपने जीवन में किसी का क़त्ल नही किया हो,

आप सभी क्या जानते हो "सैयद सालार गाज़ी" के बारे में कौन था वो, तो सुनों मैं आपको उसकी सच्चाई बताता हूँ

"आप सभी महमूद गज़नवी (गज़नी) के बारे में तो जानते ही होंगे, वही मुस्लिम आक्रांता जिसने सोमनाथ पर 17 बार हमला किया और भारी मात्रा में सोना हीरे-जवाहरात आदि लूट कर ले गया था।

महमूद गजनवी ने सोमनाथ पर आखिरी बार सन् 1024 में हमला किया था तथा उसने व्यक्तिगत रूप से सामने खड़े होकर शिवलिंग के टुकड़े-टुकड़े किये और उन टुकड़ों को अफ़गानिस्तान के गज़नी शहर की जामा मस्जिद की सीढ़ियों में सन् 1026 में भी लगवाया।

उसी लुटेरे महमूद गजनवी का ही भांजा था सैयद सालार मसूद उर्फ़ आपका गाज़ी बाबा,
यह बड़ी भारी सेना लेकर सन् 1031 में भारत आया। सैयद सालार मसूद उर्फ़ गाज़ी बाबा एक सनकी किस्म का धर्मान्ध इस्लामिक आक्रान्ता था।

महमूद गजनवी तो सिर्फ़ लूटने के लिये भारत आता था,
लेकिन सैयद सालार मसूद उर्फ़ गाज़ी बाबा भारत में विशाल सेना लेकर आया था उसका मक़सद भारतभूमि को “दारुल-इस्लाम” बनाकर रहना था, और इस्लाम का प्रचार पूरे भारत में करना था जाहिर है कि तलवार के बल पर।

सैयद सालार मसूद अपनी सेना को लेकर “हिन्दुकुश” पर्वतमाला को पार करके पाकिस्तान (आज के) के पंजाब में पहुँचा, जहाँ उसे पहले हिन्दू राजा आनन्द पाल शाही का सामना करना पड़ा, जिसका उसने आसानी से सफ़ाया कर दिया।

मसूद के बढ़ते कदमों को रोकने के लिये सियालकोट के राजा अर्जुन सिंह ने भी आनन्द पाल की मदद की लेकिन इतनी विशाल सेना के आगे वे बेबस रहे। मसूद धीरे-धीरे आगे बढ़ते-बढ़ते राजपूताना और मालवा प्रांत में पहुँचा, जहाँ राजा महिपाल तोमर से उसका मुकाबला हुआ, और उसे भी मसूद ने अपनी सैनिक ताकत से हराया। एक तरह से यह भारत के विरुद्ध पहला जेहाद ही युद्ध था जो भारत को इस्लामिक मुल्क़ बनाने के लिए हुआ था। सैयद सालार मसूद सिर्फ़ लूटने की नीयत से भारत नही आया था बल्कि बसने राज्य करने और इस्लाम को फ़ैलाने का उद्देश्य लेकर भारत आया था।

पंजाब से लेकर उत्तरप्रदेश के गांगेय इलाके को रौंदते, लूटते, हत्यायें-बलात्कार करते सैयद सालार मसूद अयोध्या के नज़दीक स्थित बहराइच पहुँचा, जहाँ उसका इरादा एक सेना की छावनी और राजधानी बनाने का था। इस दौरान इस्लाम के प्रति उसकी सेवाओं को देखते हुए उसे “गाज़ी बाबा” की उपाधि दी गई।

इस मोड़ पर आकर भारत के इतिहास में एक विलक्षण घटना घटित हुई, ज़ाहिर है कि इतिहास की पुस्तकों में जिसका कहीं जिक्र नहीं किया गया है।

इस्लामी खतरे को देखते हुए पहली बार भारत के उत्तरी इलाके के हिन्दू राजाओं ने एक विशाल गठबन्धन बनाया, जिसमें लगभग 20 राजा अपनी सेना सहित शामिल हुए और उनकी संगठित संख्या सैयद सालार मसूद की विशाल सेना से भी ज्यादा हो गई।

जैसी कि हिन्दुओ की परम्परा रही है, सभी राजाओं के इस गठबन्धन ने सालार मसूद के पास संदेश भिजवाया कि यह पवित्र धरती हमारी है और वह अपनी सेना के साथ चुपचाप भारत छोड़कर निकल जाये लेकिन सालार मसूद ने माँग ठुकरा दी उसके बाद ऐतिहासिक बहराइच का युद्ध हुआ, जिसमें संगठित हिन्दुओं की सेना ने सैयद मसूद की सेना को धूल चटा दी।

इस भयानक युद्ध के बारे में इस्लामी विद्वान शेख अब्दुर रहमान चिश्ती की पुस्तक मीर-उल-मसूरी में विस्तार से वर्णन किया गया है। उन्होंने लिखा है कि मसूद सन् 1033 में बहराइच पहुँचा, तब तक हिन्दू राजा संगठित होना शुरु हो चुके थे।

यह भीषण रक्तपात वाला युद्ध मई-जून 1033 में लड़ा गया। युद्ध इतना भीषण था कि सैयद सालार मसूद के किसी भी सैनिक को जीवित नहीं जाने दिया गया, यहाँ तक कि युद्ध बंदियों को भी मार डाला गया… मसूद का समूचे भारत को इस्लामी रंग में रंगने का सपना अधूरा ही रह गया।

बहराइच का यह युद्ध 14 जून 1033 को समाप्त हुआ।

जब फ़िरोज़शाह तुगलक बहराइच आया और मसूद के बारे में जानकारी पाकर वह बहुत प्रभावित हुआ और उसने उसकी कब्र को एक विशाल दरगाह और गुम्बज का रूप देकर सैयद सालार मसूद को “एक धर्मात्मा” के रूप में प्रचारित करना शुरु किया, एक ऐसा इस्लामी धर्मात्मा जो भारत में इस्लाम का प्रचार करने आया था।

मेरे हिन्दु भाईओं
इस इस्लामिक आक्रांता के आगे आप सभी माथा टेकते हो, जिसने अपने जीवित रहते हुए लाखों हिंदुओ को मारा हो क्या वो मरने के बाद हिन्दुओँ की मनोकामनाएं पूरी करेगा,
किसी के सामने सर झुकाने से पहले उसके इतिहास और चरित्र को तो जान लो फिर उसे सम्मान दो, जो भारतभूमि में भारत को सम्मान नही देता और हिन्दू धर्म को सम्मान नही देता, मैं उनके सामने अपना सर नही झुकाता।
ऐसे पापी अधमों के आगे आप भी माथा न झुकाओ अन्यथा अपने पूर्वजों का अनजाने में हीं अपमान कर बैठेगें ।

मेरी आत्मकथा-पुष्प कि आत्मकथा

जी हाँ, मैं पुष्प हूँ -पुष्प! प्रकृति माँ का सब से सुकुमार, कोमल, भावुक और सुन्दर बेटा- पुष्प! उपवन मेरा घर है । हवा मेरी सहचर है । मेरी सुगंध का अदृश्य, कोमल, विस्तृत चारों ओर फैला हुआ मेरा संसार है । ऐसा संसार, जिस में आकर कोई भी मनुष्य भाव से भर कर आनन्द से मस्त हुए बिना नहीं रह पाता । यह कहे बिना भी नहीं रह पाता कि बड़े सुगन्धित पुष्प खिले हैं यहाँ! जी हाँ, ऐसा ही महक और मादकता भरा है मुझ पुष्प का संसार । उतना ‘ ही सुन्दर और .मुक्त भी'। मैं सुन्दरता का साकार रूप हूँ । अपनी सुन्दरता से सारे वातावरण को तो सुन्दर बना ही देता हूँ उसकी चर्चा भी दूर-दूर तक फैला दिया करता हूँ! जी हाँ, मुझे छू कर मेरी सुगंध को अपने अदृश्य पंखों में भर कर यह छलिया पवन दूर-दूर तक मेरी सुन्दरता और सुगंध का ढिंढोरा पीट आया करता है तब लोग मेरी तरफ भागे आते हैं । मुझे तोड़ कर ले जाते हैं । कोई गुलदस्ते में सजा कर अपने घर की शोभा बढ़ाता है, तो कोई हार में पिरो कर मुझे अपने गले का हार बना लिया करता है । कभी मैं गजरा बन कर किसी सुन्दरी के जूड़े पर धर कर उसकी सुन्दरता में चान्दनी भर देता हूँ तो कभी अकेला ही बालों में टाँगा जा कर सभी का ध्यान बरबस अपनी ओर खींच लिया करता हूँ । कई बार सुन्दरियों के कानों में झूलकर उन के गोरे कोमल गालों को चूम लेने का सौभाग्य भी पा लिया करता हूँ । भगवान् के भक्त और पुजारी मुझे भगवान् के चरणों पर चढ़ा कर आनन्द पाते हैं, तो निराश प्रेमी अपनी प्रेमी- प्रेमिकाओं के मजासे पर अर्पित कर एक तरह की शान्ति प्राप्त करते हैं । कई बार मुझे गुलदस्ते या हार के रूप में विशिष्ट लोगों को भेंट में भी दिया जाता है । अरे हाँ, मुझे ‘एक भारतीय आत्मा’ नामक क्रान्तिकारी कवि की वे पंक्तियाँ आज तक याद हैं, कि जो मुझे देखकर, मेरी भावनाओं का प्रतिनिधित्व करते हुए उसके होंठों पर मचल उठी थीं; ''मुझे तोड़ लेना वनमाली, उस पथ पर तुम देना फेंक; मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जावें वीर अनेक !''लेकिन ऐसा मान-सम्मान और प्रशंसा-गान मुझे ऐसे ही प्राप्त नहीं हो गया । इसके लिए मुझे बीज के रूप में कई दिनों तक धरती माँ की माटी भरी गोद में घुटती साँसों के साथ बन्द रहना पड़ा है । आप अनुमान नहीं लगा सकते, उस पल अपने साँसों को घुटते और तन को गलते-सड़ते देखकर तब मेरे मन पर क्या बीता करती थी । उस पर सूर्य की किरणें जब ऊपर से धरती को गर्मा और झुलसा दिया करतीं, तब धरती के भीतर भी कई बार पसीने से तर होकर दम और भी घुटने लगता । तब अचानक. कहीं से पानी की कोई धार आकर उस गर्मी से तो राहत पहुँचाती; पर सड-गल रहे तन की रक्षा उस से भी न हो पाती । कई बार किसी खाद के कडुवे-कसैले स्वाद भी चखने पडते, कई बार कड़बी-तीखी दवाइयाँ निगलकर मितली-सी भी आने लगती । कई बार ऐसा भी हुआ, माली या किसान की गुड़ाई ने मिट्टी के साथ-साथ मेरे तन-मन को भी उलट-पलट कर रख दिया । इस प्रकार की स्थितियों का सामना करते समय मन में क्या गुजरती है न तो वह सब बता पाना ही सभव है और न उस सब का आप अनुमान ही लगा सकते हैं । लेकिन यह क्या? एक दिन मैंने अपने -सडगल चुके शरीर में धरती माँ के आशीर्वाद से एक नया जोश, नया उत्साह अंगड़ाईयाँ लेते हुए अनुभव किया । मुझे लगा कि मैं अपने अंगों का विस्तार-फैलाव करते हुए धरती माँ से उछलकर उसकी गोद में आ रहा हूँ । मैंने माली से लगने वाले आदमी को किसी से कहते हुए सुना-बड़े सुन्दर अंकुर फूट रहे हैं इस बार तो । तो मुझे समझ आया कि जैसे मेरा नाम ‘अंकुर’ है । वह एक जन्म-नाम हुआ करता है न, वैसा ही कुछ मेरा भी था । कुछ दिन और बीतने पर उस आदमी के मुँह से फिर सुनाई पड़ा-'कितना बढ़िया है यह पौधा ।'बस, मैंने समझा कि मैं अंकुर नहीं, पौधा हूँ -पौधा । अब वह आदमी मेरा बडे ध्यान रखने लगा । ठीक समय पर पानी तो पिलाता ही, कुछ खाद-सी भी दो-एक बार डाल गया । बड़े ध्यान और सावधानी से निराई-गुड़ाई कर के उग आई फालतू घास, खरपतवार आदि को निकाल देता । इस प्रकार पौधे के रूप में लगातार बड़ा होता गया । एक दिन मैंने अपने ऊपरी पोरों में कुछ गाँठें-सी पड़ने का अनुभव किया । बस, चिन्ता में पड़ गया कि यह नई मुसीबत कौन-सी आने वाली है? अपने इस प्रश्न का उत्तर अभी प्राप्त भी नहीं कर पाया था कि एक बार मैंने उन गाँठों के धीरे-धीरे चटकने की आवाजें सुनी । 'हाय राम! यह क्या होने जा रहा है?'मैं चौक गया; लेकिन किसी के आने की आहट पा कर कुछ बोला नहीं, बस चुपचाप देखने लगा । देखा कुछ क्षण बाद वह आहट मेरे पास आकर रुक गई है । आने वाला मेरा रखवाला माली ही था । वह मेरी दशा देख कर मुस्करा उठा और लगातार मुस्कराता गया । फिर होंठों- हीं-होंठों में बोला-'सुबह तक ये कलियाँ (गाँठें) अवश्य ही खिल कर मुस्कराता फूल बन जाएँगी । 'फूल!'एक बार मैं फिर चौंक पड़ा । पहले बीज, फिर अंकुर उसके बाद पौधा, फिर वे गाँठें- सी चटकती हुईं और अब फूल? पता नहीं क्या-क्या बनना है अभी मुझे? लेकिन तब तक रात ढल आई थी, सो वह माली चला गया । मेरी चिन्ता कम नहीं हुई । रात भर चिन्ता में डूबा रहा । जैसे ही प्रभात काल की मन्द पवन का झोंका आया, उसका मधुर-कोमल स्पर्श पाकर मैं पूरी तरह से खिलकर जैसे अपनी ही सुगन्ध से नहा उठा । पवन के और झोंके आकर मुझे लोरियाँ देने लगे-देते रहे लगातार । जी हाँ , अब मैं खिलकर पुष्प जो बन चुका था । जी, बस इतनी सी ही है मेरी आत्म-कथा!