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रविवार, 31 मई 2015

केरल का वायनड जिल्ला....

वायनाड (Wayanad) केरल का 12 वाँ जिल्ला है इसे 1 नवेम्बर 1980 को जिल्ला के रुप मेँ अधिकार दी गई । केरला के उत्तरपूर्व क्षेत्र मेँ स्थित वायनड़ जिल्ला का Kalpetta कलपेटा सिटी मुख्यालय व सबसे बड़ा सहर है । जिल्ला के मध्यभाग कम उचाँईवाले क्षेत्र है परंतु उत्तरीभाग पर्वत व जंगल से घिरे है , वहीँ पूर्वी भाग खुला व समतलक्षेत्र है । पुराणोँ मेँ इसे मायाक्षेत्र कहागया है (Maya's land) ! भाषावित के हिसाब से मायाक्षेत्र शब्द अपभ्रंस होकर मायानड और मायानड से वायनड़ शब्द बना व प्रचलित हुआ ।
भाषाविदोँ के हिसाब से वयनाड शब्द Vayal धान के खेत( paddy field) और Naad(land) भुमि के संधि से हुआ है और इसका अर्थ है 'The Land of Paddy Fields' धान खेतोँ कि भुमि । यहाँ कई आदिम आदिवासी जनजाति वास करती है और जिल्ला के अर्धाधिक जनसंख्या Tribal या आदिवासीओँ का है । वायनड़ समुद्री जलस्थर से
700 to 2100 m. उचाँई पर स्थित केरल का सबसे कम जनसंख्या वाली जिल्ला है ।
केरल के अन्य जिल्लाओँ कि विपरीत इस जिल्ला मेँ वायनड़ के नामसे कोई गाँव या सहर नहीँ है । वायनड़ केरल का इकलौता जिल्ला है जिसके वोर्डर कर्नाटक व तामिलनाड़ु राज्य से लगेहुए हो । इस जिल्ला के कुरीछाया जाति (The Kurichyas) के लोगोँ ने स्वतंत्रता संग्राम के समय अंग्रेजोँ के खिलाफ पज्हासी राजा (Pazhassi Raja) की सेना के साथ हतियार उठाया था । कुरिछया जाति के लोग अछे तीरंदाज बताये जाते है । कई पुरातन दक्षिणभारतीय काव्य गंथोँ मेँ कुरिच्छाया लोगोँ को उत्कृष्ठ धनुर्धर बताया गया है ।

वीरोँ कि जाति वाघेरजाति.......

गुजरात राज्य के वीर जाति वाघेराओँ को अंग्रेज सरकार नेँ गुनेगार कौम के मंडलीओँ मे बिठादिया था । जबकी हकीकत ये था वाघेरा जाति के लोग स्वातंत्र्यप्रेमी देशप्रेमी थे । वे अपने जमीन के लिये जाट पाईक गुर्जरोँ कि भाँति लढ़रहे थे । वाघेर जाति के लोग वहुतायत मेँ सौराष्ट्र कि सागरकंठा क्षेत्र स्थित ओखामंडलमेँ वसे हुए है । कहाजाता हे वे 7वीँ सदी से इस क्षेत्र मेँ स्थायी निवास कर रहे है । वाघेर प्रजा कि संस्कृतिमे ग्रीक, आसीरीआ, स्कीधीया, ईरानी और सिंध व भारतीय संस्कृतिका प्रभाव पड़ा हुआ लगता है । वाघेर प्रजाकी अपनी खुदकी कोई धर्म नहीँ ये लोग 16वीँ सदी मेँ भक्तिवादी संतो के कारण वैष्णवोँ के प्रभाव मेँ आये जिससे द्वारिकानाथ इनके परम आराध्य बने और ज्यादातर अब हिँदुधर्म अनुयायी है । माणेकवंशकी पांचसौ छेसौ वर्ष ईतिहासमे कोइ वाघेर सरदार खुदकी ग्राम मेँ मंदिर निर्माण या प्रतिष्ठा कि कोई प्रमाण नहीँ मिलता ये बात ओखामंडलके वाघेराजाति के लेखक कल्याणराय जोशी ने लिखा है । वाघेराओँ के लोकदेवो मेँ वाछरुदादा, खेतरपाळ, आशापुरा, शिकोतर, गात्राळ, शीतळा, आवडय, शूरापुरा और देवी सती आदि प्रमुख है । जनसृतिओँ के हिसाब से वाघेर प्रजा कच्छ से 7वीँ सदी मेँ ओखामंडल पर स्थायी निवास कर रहा है । कुछ एक ऐतिहासिक मानते कि वाघेरोँ का पूर्वज, भुजके राजपूत, जाम हमीरजी जाडेजा द्वारा एक गरासिया कन्या साथे लग्न संपन्न हुआ । इसतरह से इस समुदायमेँ खांटजैसी राजपूत जूथका समावेश हुआ हो माना जाता है । कहाजाता हे कि मूल संस्कृतशब्द वागुरा से वाघेर शब्द आया है । इनकी उत्पत्ति के विषय मेँ एक पौराणिक कथा जोड़ाजाता है वो इस प्रकार है एकबार जब श्रीकृष्ण गोमतीमे जलक्रीडा कररहे थे तब उनपर केशी नामक एक असुर ने हमला करदिया । मल्लयुद्धमेँ श्रीकृष्ण जीते और उसे पाताल कि एक गड्डे फेँकदिया । उसे गड्डे मेँ फेँकने पर उसमेँ से एक पुरुष का उत्पन हुआ उसे वाघेराओँ का आदिपुरुष मानाजाता है । एक और मान्यता अनुसार वाघ को घेरनेवाला, वाघ के शिकारी, ऐसा वाघेर का अर्थ भी कहीँ कहीँ निकालाजाता है . संस्कृत शब्द वागुरा का अर्थ भी ‘जाल, फांस, पास’ आदि के लिये उपयोग मेँ लायाजाता था । यहाँ हम ये मानसकते है कि मुख्यत्वे ये अर्थ समुदाय की शौर्यका घोतक है । ये समुदाय आज भी कच्छी भाषा बोलता है इसमेँ कई कुल या गोत्र पायेजाते मुख्यतः मानेक માણેક, केर કેર, सुमानीया સુમાણીયા,जाम જામ,हाथल હાથલ,भाथड ભાથડ,वथिया બથિયા,गोहिल ગોહિલ,परमार પરમાર,गड ગડ, गिग्गला ગિગ્ગ્લા,मापानीમાપાણી,टिलायत ટિલાયત और भायड ભાયડ । वाघेर जाति के ज्यादातर लोग हिँदु है परंतु कुछ लोग अब मुस्लिम बनजाने के पश्चात् खुदको मुस्लिम वाघेर कहकर अपना परिचय दोते है । 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान पश्चिम गुजरात में स्थित भगवान श्रीकृष्ण का देवालय एक प्रमुख केन्द्र बना था । लगातार संघर्ष करते हुए इन लोगों ने समूचा द्वारिकाधीश अंग्रेजों के अधिकार क्षेत्र से मुक्त कराया। तब वडोदरा के गायकवाड़ ने अंग्रेजी सैन्य सहायता से पुन: आक्रमण कर दिया। विक्टोरिया और जे मोबिया जहाजों से ब्रिटिश नौसेना ने समुद्र से तोपों से गोले बरसाने शुरू किये। द्वारिका का गढ़ बहुत मजबूत था। माणेक महिलाओं ने तोपों के गोलों को भीगे हुए गद्दों से शांत कर दिया। लेकिन माणेकों के पास आधुनिक शस्त्र नहीं थे। अंग्रेज सेनापति ने जब इन्हें अधीनता स्वीकार करने का संदेश भेजा तो वाघेरों माणेकों ने आह्वान किया, असां रांडीरांड पुतर वयूं। असां जो बेली द्वारिकाधीश आय। टोपीवारा को ही फरी आय। अर्थात्
हम कोई निराश्रित बच्चे नहीं, हमारा तो द्वारिकाधीश है। इन टोपीवालों अंग्रेजों के दिन समाप्त हुए । 1868 तक इन वीर वाघेरों ने संघर्ष किया। वाघेर समाज के मुलू माणेक, जोधा माणेक, बापू माणेक, भोजा माणेक, देवा छबानी, रणमल माणेक और दीपा माणेक ने अंग्रेजों के विरुद्ध द्वारिका, ओखा और रणछोरराय में संघर्ष किया था । ये भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास का यह एक अनूठा अध्याय है ।
द्वारिका में ब्रिटिश सेना के मारे गए अधिकारियों का तो कीर्तिस्तंभ है, पर हमारे वीर बलिदानी क्रांतिकारियों का स्मारक कहांं है]