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शुक्रवार, 7 अगस्त 2015

भूपेन्द्र सिँह एक परिचय

भूपेन्द्र सिँह का जन्म 4 फरवरी 1940 को अमृतसर मेँ हुआ था उनके पिता अम्रृतसर मेँ म्युजिक के प्रोफेसर थे तो छोटी सी उर्म मे ही वे अपने पिता के साथ आ गये दिल्ली ! जाहिर है उन्हे संगीत कि तालिम पिता द्वारा प्राप्त हुआ । दिल्ली मेँ पढ़ाई खत्म करके वे अल इंडिया रेड़िओ से जुड़े और वतौर म्युजिसन और सिँगर काम करने लगे ।
अल इंडिया रेड़िओ ने वाहदुर शाह जाफर पर जब एक कार्यक्रम बनाया उसमेँ भूपेन्द्र सिँह ने वहादुर शाह जफर कि एक गजल रेकोर्ड कि जो दिल्ली वालोँ ने खुब पसंद किया । ये गज़ल थी

"लगता नहीँ है दिल मेरा उजड़े दयार मेँ" !

उन्ही दिनोँ रेडिओ प्रड्युसर सतीश भाटिया के पार्टी मेँ भूपेन्द्र जी और उनके हुनर से मदन मोहन रुबरु हुए ।
इससे भूपेन्द्रजी को फिल्म हकीकत मेँ मदनमोहन ने पहला ब्रेक दिया ।
इस फिल्म मेँ महम्मद रफी ,तलत् महम्मुद और मन्ना डे के साथ उन्होने अपना पहला गीत रेकोर्ड किया । ये गीत था

"हो के मजबुर उसने मुझे भुलाया होगा ज़हर चुपके से दवा जानके खाया होगा"

इत्तेफाक से ये गाना उन्ही पर फिल्माया गया था ।

"ऋत जबाँ जबाँ

इसके बाद भूपेन्द्र सिँह आरडी बर्मन के साथ बतौर गिटारिस्ट जुड़े !

दम मारो दम गाने मेँ बजे गिटार
उन्ही के द्वारा बजाया गया था ।

इसके बाद तो उन्होने अन्य म्युजिसन के साथ भी काम किया । आरडी बर्मन के साथ दोस्ती के कारण उन्हे
फिल्म "परिचय" मेँ
लता जी के साथ
डुएट गाने का मौका मिला । गीत के वोल थे
"बीते न बिताये रैना"

भूपेन्द्र को पहला सोलो संग गाने का मौका खैयाम ने दिया था ।
फिल्म थी आखरी खत
ओर गीत था
"ऋत ऋत जबाँ जबाँ रात महरबाँ"

भुपेन्द्र सिँह जी द्वारा गाये गये ज्यादातर यादगार गीत गुलज़ार के कलम से निकले है जैसे

दिल ढ़ुँढ़ता है फुरसत के रात दिन

नाम गुम् जायेगा चेहरा ये याद आयेगा ,

एक अकेला इस सहर मेँ

कभी किसी को मुक्कमल जाहाँ नहीँ मिलता" आदि ।

मिड 80के दशक मेँ भूपेन्द्र ने बंगाली सिँगर मिताली मुखर्जी से शादी कर ली और इन दिनोँ
वे साथ साथ स्टेज सो करते व आलबम् निकालते है ।
भूपेन्द्र जी की लम्बी उम्र कि कामना करते है






हिन्दी व गान्धी

1909 से ही गाँधीजी ने तय कर लिया था कि हिन्दी राष्ट्रभाषा होना चाहिये ! परंतु ये बात सिर्फ उनके मन मेँ सीमित था
1917 साल द्वितीय गुजराट शिक्षा सम्मिलनी मेँ उन्होने घोषणा किया कि हिन्दी को भारत मे राजभाषा का व आचँलिक भाषाओँ को राज्य भाषा का दर्जा मिले ।
इतना कहकर वे चुप नहीँ बैठे
उन्होने 1918 प्रयाग हिन्दी साहित्य सम्मिलनी मेँ ये बात फिर उठाया ।
उन्होने कहा "अब ये सम्मिलनी हिन्दी प्रचार के लिये भी कार्य करे"
ये कहने के साथ साथ उन्हे पता था व्रिटिस चाटुकार दिल्ली मेँ बैठे है जातीयतावादी बात सुनते ही मुसलमानोँ को उर्दु के नाम पर भड़काएगेँ !

फिर महात्मा ने दुसरा पदजोड़ा
"हिन्दी व उर्दु दो परस्पर विरोधी भाषा नहीँ अपितु प्रयाग गंगा जमुना रुपी दो नदी है" !!
मुसलमान नागरी मेँ न लिखना चाहेँ तो उर्दु अक्षर मेँ लिखे
तब विरोध कोई कारण नहीँ बचपावेगा !!"

उत्तर भारत से हिन्दी के लिये प्रतिबंधक थे मुसलमान तो दक्षिणभारत मेँ द्राविड़ लोगोँ से भी विरोध कि भारी संभावनाएँ थी ।
तब गाँधीजी ने तय किया कि वे दाक्षिणात्य मेँ हिन्दी कि प्रचार प्रसार हेतु विशेष ध्यान देगेँ ।
गांधीजी के उद्यम से 1918 मेँ मांद्राज मेँ दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा का गठन हुआ व हिन्दी प्रचार शुरुहुआ था ।
1920 मेँ गुजरात मेँ गुजराती जातीय विश्व विद्यालय कि स्थापना हुई और वहाँ हिन्दी भाषा शिक्षा वाध्य किया गया ।
फिर गांधीजी ने देखा हिन्दी भाषा के लिये कंग्रेस का साथ नित्यान्त आवश्यक है अतः उन्होने 1924 वेलगाँव अधिवेशन मेँ हिन्दी को कंग्रेस कार्यक्रमोँ मेँ जोड़दिया ।
वेलगाँव अधिवेशन मेँ सभापतित्व करते हुए गाँधीने हिन्दी पर चमत्कार भाषण दिया । उन्हे इसबात कि यकीन न था कि लोग उनकी बात नसिर्फ सुनेगेँ वरन इसके लिये उद्यमरत्त भी होगेँ ।
1925,कानपुर मेँ हुए अधिवेशन मे कंग्रेस ने एक और पग आगे चलते हुए तय करलिया कि अबसे उसका हर कार्य हिन्दी मेँ होगा ।
गाँधीजी बारबार कहते थे
कंग्रेस को ताकतवर बनाना हे तो हिन्दी भाषा मेँ कार्य करेँ ज्यादा से ज्यादा लोग आपसे जुडेगेँ ।
यदि विदेशी भाषा को प्राधान्य दिया तो अंग्रेजोँ कि भाँति तुम्हारा भी अंग्रेज साहेब कहकर अनादर किया जायेगा ।

गाँधीजी ने हिन्दी के लिये प्रारम्भिक योगदान दिया परंतु बाद मेँ गाँधीजी कि हिन्दोस्तानी पर हिन्दी साहित्य सम्मिलनी के तत्कालीन सभापति पुरुषोत्तम दास टंडन व गाधिँजी के बीच मतान्तर बढ़गया ।
च्युँकि गान्धीजी हिन्दी के बदले हिन्दोस्तानी पर ज्यादा जोर दे रहे थे पुरुषोत्तम जी ने इसका विरोध किया । श्री टंडन का कहना था

"क्युँकि हिन्दोस्तानी के नामसे कोई भाषा नहीँ और गाँधीजी दो भाषाओँ को आपस मेँ अवैज्ञानिक तौर मिलाकर इसे हिन्दोस्तानी का नाम दे रहे हे ये अग्रणयोग्य नहीँ है । इसतरह से ये दो भाषाओँ की खिचड़ी हो जायेगा जैसे "बादशाह राम" और "मल्लिका ए रघुकुल सीता" !!"

ये सुनकर गाँधीजी को भयंकर दुःख हुआ उन्होने साहित्य सम्मिलनीओँ से बराबर दुरी बना लिया ।
1935 के बाद हिन्दी का और प्रचार प्रसार हुआ....और आज भी लगातार जारी है.....

परंतु आज स्वाधीन भारत मेँ कंग्रेसने हिन्दी से दूरी बनालिया है....

*****1 वर्ष पूर्व चुनाव प्रचार मेँ स्टार प्रचारक कंग्रेसी नेता राहुल गांधी अंग्रेजी मेँ भाषण दे रहे थे संभवतः वे और समुचा कंग्रेस पार्टी महात्मा कि ये उक्ति भूलगये थे कि हिन्दी ही जनभाषा है अंग्रेजी मेँ बोलकर आप साधारण जनता कि दिल नहीँ जीतपायेगेँ सिर्फ काले अंग्रेज बनकर रहजायेगेँ ।
लेकिन ये बात याद थी वड़ोदरा मेँ जन्मे नरेन्द्र मोदी जी को
उन्होने प्रायः सभी प्रचार अभियान मे हिन्दी भाषा मेँ चुनाव प्रचार किया और फल आपके सामने है ।
आज नरेद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री हे और संभवतः आगे भी रहेगेँ परंतु कंग्रेस को क्या मिला भारतीय भाषा सभ्यता संस्कृति को छोड़कर सिबाय हार के ???
अभी भी वक्त है कंग्रेसी सुधर जाय तो ठिक वरना लोगोँ को इन्हे सुधारना आता है ।