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सोमवार, 15 दिसंबर 2014

एक अनुठे मुसलिम श्रीकृष्णभक्त मोहम्मद याकुब सनम साहब

भारत मेँ रहीम ,रसखान ,ताज बेगम और ओडिशा मेँ भक्तकवी सालवेग जैसे मुस्लिम श्रीकृष्ण भक्तोँ का जन्म हुआ । ऐसे हि एक और संत हुए हे जनाव मोहम्मद याकुब खाँ उर्फ सनम साहब ! आजमेरवासी सनम साहबने सन् 1920 ईँ. से लेकर सन 1944 ईँ. तक देशभरमेँ कृष्णभक्ति का प्रचार प्रसार किया तथा अंत मेँ सन् 1945 ईँ मेँ एक दिन अपने इष्टदेव भगवान् श्रीकृष्णकी लीलाभूमि व्रजकी पावन मिट्टीमेँ अपना शरीर समर्पण कर दिया ! सनम साहबने संस्कृत ,हिँदी और उर्दु मेँ प्रकाशित कृष्णभक्ति साहित्य का गहन अध्ययन किया । इन भाषाओँ के अतिरिक्त वे फारसी के भी प्रकाण्ड विद्वान थे । उन्होँने कृष्णभक्ति सम्बन्धी लगभग 1200 पुस्तकेँ संगृहित कीँ तथा अजमेर मेँ श्रीकृष्ण लाइब्रेरी की स्थापना की । सनम साहबने बहुत कालतक व्रजभूमिमेँ रहकर श्रीकृष्णकी उपासना की । अपनी भक्ति के उद्देश्यसे वे कृष्णभक्त बने और तपस्वी गुरुके अन्वेषणमेँ लग गये । अन्तमेँ व्रजभूमिके संत श्रीसरसमाधुरी शरणजीको उन्होँने अपना गुरु बनालिया । गुरुजी के प्रेरणा से उन्होँने समुचे भारत मेँ श्रीकृष्ण भक्ति का प्रचार कि संकल्प लिया ! वे प्रभावशाली वक्ता तथा भावुक भक्त थे , अतः कुछ ही समय मेँ देशभर मेँ उनके प्रवचनोँकी धूम भच गयी । सनम साहबने अपने प्रवचनोँमेँ कहा था श्रीकृष्णके दो रुप हैँ निराकर और साकार । निराकर जो गोलोकधाम मेँ विराजमान है ,उसका तीन रुपसे अनुभव होता है -प्रेम,जीवन तथा अनन्द ! प्रेम ही जीवनविधान है ,जीवन ही सत्यता का आधार है और जीवनका मुख्य उद्देश्य आनन्द है । इस कारण ये तीनोँ ही श्रीकृष्णकी निराकार विभूतियाँ हैँ ,सृष्टिमात्रमेँ व्याप्त हैँ । एक सुशिक्षित मुसलमानको श्रीकृष्णभक्ति मेँ तल्लीन देखकर संकीर्णमना लोगोँ मेँ तहलका सा मचगया था । कुछने अजमेर पहुँचकर उन्हेँ समझा बुझाकर कृष्णभक्तिके पथसे डिगानेका भारी प्रयास किया ,किन्तु उनके तर्कोँके आगे वे वापस लौट जाते थे ।इसके पश्चात उन्हेँ जानसे मार डालनेकी बी धमकी दी गयी . काफिरतक कहागया ,किँन्तु सनम साहबने स्पष्ट कहदिया कि मेँ अपने इष्टदेव श्रीकृष्ण की भक्ति के लिये पैदा हुआ हुँ ,जिसदिन उन्हे , मुझे अपने लोकमेँ बुलाना होगा , मेँ पहुँचा दिया जाऊँगा । अजमेरमेँ उनपर आक्रमणका प्रयास भी किया गया । इसपर उन्होँने प्रतिक्रिया स्वरुप लिखा "अभी मुझसे भगवान् श्रीकृष्णो और काम लेना है, इसीलिये उन्होँने रक्षा की है ।

महामना मदनमोहन मालवीयने सन 1939 ईँ मेँ सनम साहबको काशी बुलाकर उनसे श्रीकृष्ण भक्ति के विषयमेँ विचार विनिमय किया और बड़े प्रभावित हुए ।

काशी से व्रजभूमि लौटने पर सनम साहबने अपने इष्टदेव भगवन् श्रीकृष्णकी लीलाभूमि 'व्रज'- सेवनका संकल्प किया । वे हर समय यमुना स्नान एवं श्रीकृष्णके ध्यानमेँ लीन रहने लगे । रुखा सुखा सात्त्विक भोजन प्रसादरुप मेँ ग्रहणकर लेना तथा बाकी समय संत महात्माओँकी सेवा एवं संकीर्तनमेँ व्यतीत करना यही उनकी दिनचर्या थी । वे अपनेको "ब्रजराजकिशोरदास" नामसे सम्बोधित करने लगे थे । एक दिन उन्होँने वृन्दावन मेँ ही रासलीला का रसास्वादन करते समय अपने प्राण त्याग दिये ।

[गीताप्रेस खोरखपुर प्रकाशन कि सत्य एवं प्रेरक घटनाएँ पुस्तक से यह प्रकाशित लेख लियागया हे ]