ब्लॉग आर्काइव

रविवार, 21 अगस्त 2022

धंधे का भेद(चंदामामा)

शिलंगेरी गांव का धर्मानंद अपनी पत्नी और पुत्री के साथ एक विशेष पुण्यस्थली के तीर्थ पर अपने गांव से रवाना हुआ । उस पुण्यस्थली तक पहुंचने के लिए एक नदी को पार करना पड़ता था । नदी के किनारे पहुंचे तो वहां पहले ही कुछ यात्री इंतज़ार में दिखें । उन्हें भी नदी पार जाना था । वहां एक नाव भी थी । नाव का मल्लाह भी वहीं था । धर्मानंद ने उससे पूछा , " भाई , पार ले जाने के कितने पैसे लोगे ? ' " ' एक रुपया , फी यात्री , " मल्लाह ने उत्तर दिया । नदी में पानी काफी था । बल्कि उसका कोई ओर छोर ही दिख नहीं रहा था । धर्मानंद को हैरानी हुई । केवल एक रुपया ! खैर , वह मल्लाह से कुछ नहीं बोला और अपनी पत्नी और बेटी के साथ नाव में जा बैठा । बाकी यात्री भी बैठ गये ।

 नदी पार करने के बाद सब यात्री देव दर्शन के लिए वहां के मंदिर पर पहुंचे और दर्शन करने के बाद वापस नदी किनारे आ गये । दरअसल , उन्हें उसी दिन वापस नदी पार जाना था , क्योंकि मंदिर पर रुकने की कोई व्यवस्था न थी और न ही वहां भोजन की कोई व्यवस्था थी । उधर अंधेरा भी उतरने को और वे अंधेरे में किसी प्रकार का जोखिम नहीं उठाना चाहते थे । मल्लाह अपनी नाव के साथ वापस जाने को तैयार था , लेकिन अब वह फी यात्री पांच रुपये मांग रहा था । " यह क्या ? " धर्मानंद को फिर हैरानी हुई । " उधर से आये तो केवल एक रुपया फी यात्री मांगा , और अब पांच रुपये फी यात्री मांग रहे हो ! तुम्हारा मतलब है , अब हम तुम्हें तीन रुपये के बजाय पंद्रह रुपये दें ? हद कर रहे हो ! " " ' आप परेशान क्यों होते हैं , हुज़ूर ! आपको भी अब यह इत्ती सी बात बतानी पड़ेगी ? यह तो धंधे का भेद है " उत्तर देते हुए मल्लाह मंद - मंद मुस्करा रहा था । -

(किशन आर्य)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें