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मंगलवार, 17 मई 2022

ज्ञानवापी एक संस्कृत शब्द है

ज्ञानवापी एक मुसलिम या आरबी ,पार्सी ,तुर्क शब्द नहीं है ।  ज्ञानवापी शब्द  ज्ञान तथा वापी शब्द से बना है ।

समुचा विश्व यह जानता हीं होगा कि 'ज्ञान' शब्द मूळतः एक संस्कृत शब्द है । परन्तु कई लोग संभवतः वापी शब्दके बारे में नहीं जानते होंगे ‌ । यह शब्द कहां से किस भाषा से आया है और इसका अर्थ क्या है बहुतों को नहीं पता होगा...

हिन्दी शब्दसागर शब्दकोषमें  वापी शब्दका  अर्थ छोटा जळाशय़ व बावली लिखा हुआ है ‌। वापी या बावली सिडीयोंवाली कूंए होती हैं जिसे ओड़िआ भाषा में बाम्फी कहाजाता है ।

हिन्दीकी वापी या बावली तथा ओड़िआ भाषाकी बाम्फी शब्द संस्कृत वापि शब्द के साथ समोद्धृत है  । अद्यपि  संस्कृत भाषामें भी   वापि व वापी दोनों शब्दोंका प्रयोग होता है ‌।  इसलिए स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि वापी शब्द मूलतः एक संस्कृत शब्द है ।

"जळाशय़ोत्सर्गतत्त्वम्" शास्त्रमें वापि या वापीकी लक्षण इसतरह उल्लेख किया गया है...

“नव्यवर्द्धमानधृतो वशिष्ठः ।
शतेन धनुर्भिः पुष्करिणी ।
त्रिभिः शतैर्दीर्घिका । चतुर्भिर्द्रोणः । पञ्चभिस्तडागः । द्रोणाद्दशगुणा वापी । तेन चतुर्द्दिक्षु पञ्चत्रिंशद्धस्तान्यूनतायां द्वादशशतहस्तान्तरान्यूनत्वेन दीर्घिका । चतुर्द्दिक्षु चत्वारिंशद्धस्तान्यूनतायां षोडशशतहस्तान्तरान्यूनत्वेन द्रोणः । चतुर्द्दिक्षु त्रिंशदधिकशतहस्तान्यूनतायां षोडशसहस्रहस्तान्तरान्यूनत्वेन वापी” । (इति जळाशयोत्सर्गतत्त्वम्)

वापि वा वापी खननके फळ विषय पर भी कळ्पतरौ वाय़ुपुराणमें बताया गया है की...

“यो वापीमथवा कूपं देशे वारिविवर्ज्जिते ।
खानयेत् स दिवं याति बिन्दौ बिन्दौ शतं समाः ॥”

वापि या वापीके जल के सम्बन्धमें राजबल्लभ ग्रन्थमें उल्लेख है

“याप्यं गुरु कटु क्षारं पित्तळं कफवातजित् ।”

वापि या वापी खनन के सम्बन्धमें शास्त्रों में दिङ्निषेध विषयक उल्लेख भी है

जैसे,  —
“वापीकूपतडागं वा प्रासादं वा निकेतनम् ।
न कुर्य्याद्वृद्धिकामस्तु अनळानिळनैरृते ॥ आग्नेय्यां मनसस्तापो नैरृते क्रूरकर्म्मकृत् ।
   वायव्यां बळवित्तञ्च पीयमाने जळे प्रिये ॥
      स्थानस्य पावके भागे वापीकूपतड़ागकम् ।
          अग्निदाहं सदा कुर्य्यात् समानुषचतुष्पदाम् ॥
               नैरृते पीयमानन्तु आत्मना दुःखितो भवेत् ।
                     कन्यापि तज्जळं पीत्वा पतिं गृह्णाति कामतः ॥”
                    (इति देवीपुराणे नन्दाकुण्डप्रवेशाध्यायः )

उसी प्रकार धरती पर  वापि या वापी निर्माण द्वारा क्या क्या लाभ होता है उसपर भी अग्निपुराणमें विस्तृत उल्लेख मिलता है ।

"शर्म्मिळ उवाच ।”

“तडागोदकवापीनां कृतानामिह यत् फळम् । विशेषेण पितृश्रेष्ठ वक्तुमर्हस्यशेषतः ॥”

“यम उवाच ।”

“धर्म्मस्यार्थस्य कामस्य यशसश्च द्बिजोत्तम ।
तड़ागं सुप्रभूताम्बु परमायतनं स्मृतम् ॥
देवताः पितरो नागा गन्धर्व्वा यक्षराक्षसाः ।
पशुपक्षिमनुष्याश्च संश्रयन्ति जळाशयम् ॥
कृत्स्नं तारयते वंशं पश्य खाते जळाशये ।
गावः पिबन्ति पानीयं मनुष्याः पशवस्तथा ॥
शरदृतौ तड़ागेषु सलिळं यस्य तिष्ठति ।
अग्निष्टोमफळं तस्य प्रवदन्ति मनीषिणः ॥
येषां शिशिरकाळे तु पानीयं प्रतितिष्ठति ।
वाजपेयातिसत्राभ्यां फळं बिन्दन्ति मानवाः ॥
वसन्ते चैव ग्रीष्मे तु सलिळं यस्य तिष्ठति ।
राजसूयांश्वमेधाभ्यां स फळं समुपाश्नुते ॥
तड़ागं सर्व्वसत्त्वानां जीवनन्तु दिवानिशम् ।
तस्मात् सर्व्वात्मना वत्स तड़ागमिह कारयेत् ॥
कृत्स्नं हि तारयेद्बंशं पुरुषस्य न संशयः ।
सावतारः कृतः कूपः सम्प्रभूतजळस्तथा ॥
यस्य स्वादुजळं कूपे पिबन्ति सततं जनाः ।
स नरो विरजो लोके देववद्दिवि मोदते ॥
पीत्वैवेक्षुरसं क्षीरं दधि मधु सुरासवम् ।
तावत् पिपासा नापैति यावत्तोयं न पीयते ॥
जीवन्ति चान्नरहिता दिवसानि बहून्यपि । तृषितस्तोयरहितो दिनमेकं न जीवति ॥
तस्माद्ददाति यो नित्यं पानीयं प्राणिनामिह ।
स ददाति नरः प्राणान् माभूत्ते ह्यत्र संशयः ॥
प्राणदानात् परं नाम नान्यद्दानं हि विद्यते ।
तस्माद्वापीश्च कूपांश्च तडागानि च कारयेत् ॥
सवृक्षाणि ह विप्रर्षे यदीच्छेत् श्रियमात्मनः ।
शुष्कं परनिपानन्तु यः कारयति शक्तितः ।
सन्तारयति भूय़ोऽपि द्विगुणं तस्य वै फळम् ॥ ”

(इति वह्निपुराणे तडागवृक्षप्रशंसानामाध्यायः ॥)

अतः विभिन्न शास्त्रों में वापि तथा वापी शब्दके प्रय़ोग से स्पष्ट होता है कि यह एक संस्कृत शब्द है।

कळ्पद्रुम संस्कृत अभिधान के अनुसार
"वापि + कृदिकारादिति ङीष्" = वापी

वहीं वापि शब्दके सम्बन्धमें वहां कहा गया है

"उप्यते पद्मादिकमस्यामिति । वप् + “वसिवपियजिराजिव्रजीति”

ओडि़आ पूर्ण्णचन्द्र भाषाकोषरमें भी वापि शब्दकी इसी निरुक्तिमतको समर्थन किया गया है और उल्लेख किया गया है कि  वप् धातुसे बुनने अर्थमे वापि शब्दको निष्पन्न कियागया है  । पूर्वकालमें जहां पद्मादि पुष्पके वीजों को वपन किया जाता था उसे वापि या वापी कहा जाता था

दीर्घिका; पोखर; दीर्घी; चकौरनुमा लम्बी पोखर; जलाशयको वापि/वापी कुहाजाता था और चतुष्कोण प्रस्तर निर्मित बृहत् कूपको भी लोग वापि/वापी कहाकरते थे ।

इसलिए स्पष्ट है कि ज्ञानवापी एक संस्कृत शब्द है । इसका पहले ज्ञानरूपक वापी या कूपके अर्थमें सम्भवतया नामकरण हुआ था ‌ । बहुत सम्भव पहले के ज़माने में ज्ञानवापी मन्दिर ज्ञानका पीठ रहा होगा जिसे सनातन धर्मके नाश करने हेतु बाहर से आनेवाले आक्रान्ताओं ने तोड़कर उसके  उपर मसजिद बना दिया होगा ।  सेंकड़ों वर्षों तक सनातनी हिन्दूओं को यहां मस्जिद बनाकर अंधेरे में रखागया परन्तु अब सच्चाई खुलने लगी है ‌ ।

लेखक —शिशिर साहु मनोज

तथ्य
©पूर्ण्णचन्द्र भाषाकोष
© हिन्दी शब्दसागर
©संस्कृत कळ्पद्रुम अभिधान

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