सालबेग 17वीं शताब्दी के एक प्रसिद्ध ओडिया धार्मिक कवि और भगवान जगन्नाथ के परम भक्त थे। उनकी कहानी भक्ति, समर्पण और आध्यात्मिक एकता का अनूठा उदाहरण है, जो धार्मिक और सामाजिक सीमाओं को पार करती है। सालबेग का जन्म एक मिश्रित धार्मिक पृष्ठभूमि में हुआ था, जिसने उनके जीवन को अनोखा बनाया और उनकी भक्ति को और भी प्रेरणादायक बनाया। उनकी जीवनी न केवल उनके व्यक्तिगत संघर्षों को दर्शाती है, बल्कि यह भी दिखाती है कि सच्ची भक्ति किसी भी बंधन को तोड़ सकती है।
सालबेग का जन्म 17वीं शताब्दी की शुरुआत में ओडिशा में हुआ था। उनके पिता, लालबेग (जिन्हें जहांगीर कुली खान के नाम से भी जाना जाता है), मुगल सेना में एक सूबेदार थे, जो मुस्लिम थे। उनकी माता एक ब्राह्मण विधवा थीं, जिनसे लालबेग ने एक सैन्य अभियान के दौरान विवाह किया था। इस हिंदू-मुस्लिम दंपति की संतान होने के कारण सालबेग को बचपन से ही सामाजिक भेदभाव और बहिष्कार का सामना करना पड़ा। उनकी माता भगवान जगन्नाथ की परम भक्त थीं और उन्होंने सालबेग को बचपन से ही भगवान विष्णु और जगन्नाथ की भक्ति की कहानियाँ सुनाईं, जिसका उनके मन पर गहरा प्रभाव पड़ा।
सालबेग ने अपने पिता के नक्शेकदम पर चलते हुए युवावस्था में मुगल सेना में एक सैनिक के रूप में शामिल हो गए। हालांकि, उनकी माता द्वारा दी गई भक्ति की शिक्षा ने उनके हृदय में आध्यात्मिकता की नींव डाली।
सालबेग का जीवन तब बदला जब एक युद्ध में वे गंभीर रूप से घायल हो गए। उनकी चोट इतनी गंभीर थी कि कोई भी वैद्य या हकीम उनका इलाज नहीं कर पा रहा था। मृत्यु के करीब होने पर उनकी माता ने उन्हें भगवान जगन्नाथ की शरण में जाने की सलाह दी। उनकी माता ने कहा कि यदि उनकी भक्ति सच्ची होगी, तो भगवान उनकी रक्षा करेंगे। सालबेग ने अपनी माता की बात मानी और भगवान जगन्नाथ की प्रार्थना शुरू की। कहा जाता है कि उनकी सच्ची भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान जगन्नाथ ने उन्हें सपने में दर्शन दिए और उनके घाव पर भस्म लगाई। चमत्कारिक रूप से, अगले दिन सालबेग के सभी घाव ठीक हो गए। इस घटना ने उनके जीवन को पूरी तरह बदल दिया, और उन्होंने अपना जीवन भगवान जगन्नाथ की भक्ति में समर्पित करने का निर्णय लिया।
इसके बाद, सालबेग ने मुगल सेना छोड़ दी और भक्ति मार्ग को अपनाया। वे पुरी के जगन्नाथ मंदिर में दर्शन करने गए, लेकिन उस समय के सामाजिक और धार्मिक नियमों के कारण, मुस्लिम होने के नाते उन्हें मंदिर में प्रवेश की अनुमति नहीं मिली। यह उनके लिए बहुत दुखद था, क्योंकि उनकी आत्मा पूरी तरह से भगवान जगन्नाथ में लीन हो चुकी थी। निराश होने के बजाय, सालबेग ने मंदिर के बाहर ही बैठकर भगवान की भक्ति शुरू कर दी। उन्होंने उड़िया भाषा में भगवान जगन्नाथ और श्रीकृष्ण के लिए कई भक्ति भजन और कविताएँ लिखीं, जो आज भी लोकप्रिय हैं। उनके सबसे प्रसिद्ध भजन में से एक है "अहे नीला सैला", जो भगवान जगन्नाथ की महिमा का गुणगान करता है।
मंदिर में प्रवेश न मिलने के दुख से सालबेग ने वृंदावन की यात्रा की, जहाँ उन्होंने एक वर्ष तक तपस्वी जीवन जिया। वहाँ उन्होंने साधुओं की संगति में भगवान कृष्ण की भक्ति की और कई भजन रचे, जिनमें गोपियों, ब्रज संस्कृति, और यशोदा-कृष्ण के प्रसंगों का वर्णन था। वृंदावन में बिताए समय ने उनकी भक्ति को और गहरा किया, और वे भगवान जगन्नाथ को श्रीकृष्ण के रूप में पूजने लगे। सालबेग की रचनाएँ आम जनता की भाषा उड़िया में थीं, जिसने भक्ति को व्यापक स्तर पर जन-जन तक पहुँचाया। विद्वानों का मानना है कि सालबेग ने संस्कृत श्लोकों की जगह उड़िया भजनों को अपनाकर भगवान जगन्नाथ की भक्ति को सरल और सुलभ बनाया।
वृंदावन में एक वर्ष बिताने के बाद, सालबेग की इच्छा फिर से पुरी में भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा देखने की हुई। गैर-हिंदुओं को मंदिर में प्रवेश की अनुमति नहीं थी, लेकिन रथ यात्रा के दौरान सभी लोग भगवान के दर्शन कर सकते थे। सालबेग ने पुरी की ओर प्रस्थान किया, लेकिन रास्ते में कुछ कठिनाइयों के कारण उन्हें लगा कि वे समय पर नहीं पहुँच पाएंगे। उन्होंने मन ही मन भगवान जगन्नाथ से प्रार्थना की, "हे प्रभु, मैंने आपके दर्शन के लिए एक वर्ष तक प्रतीक्षा की है, कृपया अब आप मेरे लिए थोड़ा इंतजार करें।"
कहा जाता है कि सालबेग की सच्ची भक्ति के कारण भगवान जगन्नाथ ने उनकी प्रार्थना स्वीकार की। जब रथ यात्रा शुरू हुई, तो भगवान जगन्नाथ का रथ उस स्थान पर रुक गया, जहाँ सालबेग अपनी झोपड़ी में भक्ति कर रहे थे। लाखों भक्तों की भीड़ और ताकतवर रस्सियों के बावजूद रथ आगे नहीं बढ़ा। यह देखकर सभी आश्चर्यचकित हो गए। तभी एक व्यक्ति ने सुझाव दिया कि सालबेग का जयघोष किया जाए। जैसे ही तत्कालीन ओडिशा के राजा ने सालबेग का जयकारा लगवाया, रथ अपने आप आगे बढ़ गया। यह चमत्कार लोगों के लिए भगवान जगन्नाथ और उनके भक्त सालबेग के बीच गहरे संबंध का प्रतीक बन गया।
इस घटना के बाद, सालबेग हर साल रथ यात्रा के दौरान पुरी आते थे और रथ यात्रा के मार्ग पर, जिस स्थान पर आज उनकी मजार है, वहाँ खड़े होकर भगवान के दर्शन करते थे। उनकी भक्ति इतनी गहरी थी कि रथ हर साल उनके पास रुक जाता था। यह परंपरा उनके जीवनकाल में ही शुरू हो गई थी।
सालबेग की मृत्यु के बाद, उन्हें पुरी के ग्रैंड रोड (बड़दंड) पर, जगन्नाथ मंदिर और गुंडिचा मंदिर के बीच, उसी स्थान पर दफनाया गया, जहाँ वे रथ यात्रा के दौरान भगवान के दर्शन करते थे। उनकी मृत्यु के बाद भी रथ यात्रा के दौरान भगवान जगन्नाथ का रथ उनकी मजार पर रुकता है। यह परंपरा आज भी जारी है, और हर साल रथ यात्रा के दौरान भगवान का रथ कुछ देर के लिए सालबेग की मजार पर रुकता है, जो उनकी भक्ति और भगवान के प्रेम का प्रतीक है।
कहा जाता है कि सालबेग ने एक बार कहा था, "यदि मेरी भक्ति सच्ची है, तो मेरे मरने के बाद भगवान जगन्नाथ स्वयं मेरी मजार पर दर्शन देने आएंगे।" उनकी यह बात सत्य हुई, और आज भी उनकी मजार पर रथ का रुकना भगवान और भक्त के बीच शाश्वत बंधन को दर्शाता है।
सालबेग ने उड़िया भाषा में कई भक्ति भजन और कविताएँ लिखीं, जो भगवान जगन्नाथ और श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन करती हैं। उनकी रचनाएँ सरल और भावपूर्ण थीं, जिसने उन्हें आम जनता के बीच बहुत लोकप्रिय बनाया। उनके भजनों में गोपियों, यशोदा-कृष्ण के प्रसंग, और ब्रज संस्कृति का चित्रण मिलता है। उनकी रचनाओं ने भक्ति आंदोलन को भी प्रभावित किया, और वे कबीर, मीराबाई, और रविदास जैसे भक्ति कवियों की परंपरा में शामिल हो गए। उनकी रचनाओं ने धार्मिक एकता को बढ़ावा दिया और यह साबित किया कि भगवान की भक्ति किसी धार्मिक बंधन से परे है।
सालबेग की कहानी भारत में धार्मिक समावेश और भक्ति की शक्ति का प्रतीक है। एक मुस्लिम होने के बावजूद, उनकी भगवान जगन्नाथ के प्रति भक्ति ने उन्हें हिंदू और मुस्लिम दोनों समुदायों में सम्मान दिलाया। उनकी मजार पर रथ का रुकना न केवल उनकी भक्ति को श्रद्धांजलि है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि भगवान अपने भक्तों के बीच कोई भेदभाव नहीं करते। सालबेग की भक्ति ने सामाजिक और धार्मिक बाधाओं को तोड़ा और यह संदेश दिया कि सच्ची भक्ति सभी के लिए सुलभ है।
भक्त सालबेग की जीवनी एक ऐसी कहानी है जो भक्ति, विश्वास, और दैवीय कृपा का प्रतीक है। उनका जीवन हमें सिखाता है कि सच्ची भक्ति धर्म, जाति, या सामाजिक स्थिति से परे होती है। उनकी कहानी आज भी लाखों लोगों को प्रेरित करती है, और पुरी की रथ यात्रा में उनकी मजार पर रथ का रुकना भगवान जगन्नाथ और उनके भक्त के बीच अनन्य प्रेम का प्रतीक है। सालबेग की भक्ति और उनकी रचनाएँ भारतीय भक्ति साहित्य और संस्कृति का एक अमूल्य हिस्सा हैं, जो आने वाली पीढ़ियों को भी प्रेरित करती रहेंगी।
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