मानव इतिहास विश्वास और आस्था की कहानियों से भरा पड़ा है। ये विश्वास समाज को एकजुट करने के साथ-साथ व्यक्तियों को जीवन का अर्थ प्रदान करते हैं। लेकिन जब ये विश्वास विरोध का सामना करते हैं, तब मानव व्यवहार तर्क की सीमाओं को पार कर जाता है। इसका एक उल्लेखनीय उदाहरण 1954 में अमेरिका के शिकागो शहर में डोरोथी मार्टिन की कहानी है, जिसका विवरण लियोन फेस्टिंगर ने अपनी पुस्तक When Prophecy Fails में दिया है। यह घटना Confirmation Bias को समझने में एक महत्वपूर्ण उदाहरण है और यह दर्शाती है कि मानव मस्तिष्क अपने विश्वासों को बनाए रखने के लिए तर्क को कैसे ढाल लेता है।
1954 में डोरोथी मार्टिन (छद्म नाम: मैरियन कीच) ने दावा किया कि उन्हें "क्लैरियन" नामक एक काल्पनिक ग्रह के निवासियों से Automatic Writing के माध्यम से संदेश प्राप्त हो रहे हैं। Automatic Writing एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें व्यक्ति दावा करता है कि वह अचेतन या सुषुप्त अवस्था में कुछ लिखता है, जो कथित तौर पर किसी अलौकिक स्रोत से प्रेरित होता है। मार्टिन के अनुसार, क्लैरियन ग्रह के प्राणी एक उन्नत सभ्यता के प्रतिनिधि थे और उन्होंने चेतावनी दी थी कि 21 दिसंबर, 1954 को पृथ्वी एक विनाशकारी बाढ़ में डूब जाएगी। लेकिन, जो लोग उनके संदेश पर विश्वास करेंगे, उन्हें क्लैरियनवासी अपने अंतरिक्ष यान में ले जाकर अपने ग्रह पर एक शानदार जीवन प्रदान करेंगे।
मार्टिन के इस दावे ने व्यापक प्रचार पाया और लोगों का ध्यान आकर्षित किया। उनके अनुयायी, जो अधिकांश साधारण लोग थे, इस भविष्यवाणी पर गहराई से विश्वास करने लगे। जैसे-जैसे 21 दिसंबर की तारीख नजदीक आई, मार्टिन और उनके अनुयायियों ने एक निश्चित स्थान पर एकत्र होकर क्लैरियनवासियों के अंतरिक्ष यान की प्रतीक्षा की। इस समूह ने भक्ति भरे गीत गाए, मोमबत्तियाँ जलाईं और पूर्ण श्रद्धा के साथ अपने उद्धार की प्रतीक्षा की। लेकिन, जैसी उम्मीद थी, वैसा कुछ नहीं हुआ। न तो कोई अंतरिक्ष यान आया और न ही कोई प्रलयकारी बाढ़ आई।
जब डोरोथी मार्टिन की भविष्यवाणी गलत साबित हुई, तब उनके अनुयायियों की प्रतिक्रिया आश्चर्यजनक थी। कोई भी अनुयायी यह स्वीकार करने को तैयार नहीं था कि मार्टिन का दावा पूरी तरह गलत था या क्लैरियन का कोई अस्तित्व नहीं था। इसके बजाय, उन्होंने विभिन्न तर्क गढ़े और डोरोथी मार्टिन का समर्थन किया। कुछ ने कहा कि उन्होंने संदेश को गलत समझा था और प्रलय की तारीख भविष्य में हो सकती है। कुछ ने विश्वास किया कि क्लैरियनवासियों ने पृथ्वी पर प्रलय लाने की योजना रद्द कर दी थी, क्योंकि उनका उद्देश्य केवल अनुयायियों की आस्था की परीक्षा लेना था। कई अनुयायियों ने तर्क दिया कि उनकी भक्ति और प्रार्थनाओं ने ही प्रलय को टाल दिया।
ये प्रतिक्रियाएँ Confirmation Bias का एक उत्कृष्ट उदाहरण हैं। Confirmation Bias एक ऐसी मनोवैज्ञानिक प्रवृत्ति है, जिसमें लोग उन सूचनाओं को प्राथमिकता देते हैं जो उनके विश्वासों का समर्थन करती हैं और उन सूचनाओं को नजरअंदाज करते हैं जो उनके विश्वासों को चुनौती देती हैं। डोरोथी मार्टिन की घटना में, अनुयायियों ने यह मानने से इनकार कर दिया कि उनकी आस्था गलत थी। इसके बजाय, उन्होंने ऐसी व्याख्याएँ गढ़ीं जो उनकी आस्था को और मजबूत करती थीं।
प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक लियोन फेस्टिंगर ने इस घटना का अध्ययन किया और इसे अपनी पुस्तक When Prophecy Fails में उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया। फेस्टिंगर ने इस घटना को Cognitive Dissonance सिद्धांत के माध्यम से समझाया। Cognitive Dissonance तब होता है जब किसी व्यक्ति के विश्वास और वास्तविकता के बीच संघर्ष होता है। इस असंगति को कम करने के लिए, व्यक्ति या तो अपने विश्वास को बदल सकता है या वास्तविकता को नजरअंदाज करने के लिए तर्क गढ़ सकता है। मार्टिन के अनुयायियों ने दूसरा रास्ता चुना।
फेस्टिंगर के अनुसार, जब कोई भविष्यवाणी गलत साबित होती है, तो विश्वासियों के सामने दो विकल्प होते हैं:
1. यह स्वीकार करना कि उनका विश्वास गलत था।
2. ऐसी व्याख्या करना जो उनके विश्वास को और मजबूत करे।
पहला विकल्प मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से कठिन है, क्योंकि यह व्यक्ति की पहचान और सामाजिक स्थिति को चुनौती देता है। इसलिए, अधिकांश लोग दूसरा रास्ता चुनते हैं, जैसा कि मार्टिन के अनुयायियों ने किया।
Confirmation Bias केवल धार्मिक या अलौकिक विश्वासों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह दैनिक जीवन, राजनीति, विज्ञान और सामाजिक व्यवहार में भी दिखाई देता है।
विभिन्न धर्मों और संस्कृतियों में, जो लोग आस्था पर सवाल उठाते हैं, उन्हें अक्सर नकारात्मक रूप से देखा जाता है। उदाहरण के लिए, बाइबल में ऐसे लोगों को "Devil’s Advocate" कहा जाता है, पठानों के धर्म में "काफिर" और भारतीय परिप्रेक्ष्य में कुछ लोग उन्हें "वामपंथी", "म्लेच्छ" या "नास्तिक" जैसे शब्दों से संबोधित करते हैं। यह नकारात्मक लेबलिंग विश्वास को चुनौती देने की प्रक्रिया को और कठिन बना देता है।
Confirmation Bias राजनीति में भी स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। लोग उन खबरों, लेखों और सोशल मीडिया पोस्ट को प्राथमिकता देते हैं जो उनके राजनीतिक विचारों का समर्थन करते हैं। इससे समाज में ध्रुवीकरण बढ़ता है, क्योंकि लोग विपरीत मत को सुनने या समझने से इनकार कर देते हैं।
विज्ञान के क्षेत्र में भी वैज्ञानिक कभी-कभी Confirmation Bias का शिकार हो जाते हैं। वे उन डेटा को प्राथमिकता दे सकते हैं जो उनकी परिकल्पना का समर्थन करते हैं और उन डेटा को नजरअंदाज कर सकते हैं जो उसका खंडन करते हैं।
इस संदर्भ में प्रसिद्ध खगोलशास्त्री और विज्ञान संचारक कार्ल सागन का कथन उल्लेखनीय है, उन्होंने कहा था— "सबसे आसान है यह 'सोचना' कि मैं सही हूँ। और सबसे असंभव है यह 'जानना' और 'मानना' कि मैं गलत हो सकता हूँ।"
यह कथन मानवता की एक मूलभूत कमजोरी को उजागर करता है। अपने विश्वास को चुनौती देना और यह स्वीकार करना कि हम गलत हो सकते हैं, एक कठिन और असहज प्रक्रिया है। लेकिन यही प्रक्रिया व्यक्तिगत और सामाजिक विकास की नींव रखती है।
मानवता की प्रगति तब ही संभव हुई है जब लोगों ने अपनी आस्था को चुनौती दी है। उदाहरण के लिए, गैलीलियो ने पृथ्वी-केंद्रित विश्वास को चुनौती दी थी, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें कठोर दंड का सामना करना पड़ा। लेकिन उनके आविष्कार ने विज्ञान को एक नई दिशा दी। इसी तरह, दासता उन्मूलन और महिलाओं के मताधिकार जैसे सामाजिक सुधार भी उन आस्थाओं को चुनौती दे रहे थे जो उस समय सामान्य थीं।
डोरोथी मार्टिन की कहानी और इससे जुड़े Confirmation Bias के तथ्यों से हम यह समझ सकते हैं कि मानव मस्तिष्क अपने विश्वासों को बनाए रखने के लिए कितना जटिल और रचनात्मक हो सकता है। यह घटना न केवल मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों को समझने में मदद करती है, बल्कि यह भी दर्शाती है कि आस्था और विश्वास सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन में कितने गहरे तक जुड़े हुए हैं। Confirmation Bias को समझना और इसके खिलाफ सत्य का पक्ष लेना आधुनिक समाज के लिए एक बड़ी चुनौती है। इसके लिए खुले दिमाग से अपने विश्वासों का मूल्यांकन करना, तर्क और प्रमाण को प्राथमिकता देना और यह स्वीकार करने का साहस रखना आवश्यक है कि हम और हमारे विश्वास भी गलत हो सकते हैं। यदि विश्वास के साथ सत्य है, तो उस सत्य को जानकर और समझकर ही उस विश्वास को अपनाया जा सकता है। आँख मूंदकर हर बात पर विश्वास करना कतई हितकर नहीं है।
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