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गुरुवार, 15 मई 2025

ऋग्वेद मंत्रों की गलत व्याख्या और हिंदू धर्म का अपमान

कुछ व्यक्ति हिंदू-विरोधी व विधर्मि होने के कारण ऋग्वेद के मंत्रों का गलत व्याख्या लिखकर हिंदू जाति और धर्म का घोर अपमान कर रहा है। 

वे लोग ऋग्वेद मंत्र मंडल १०,२८,३ का हवाला देकर कहते हैं कि देखो यहां तो लिखा गया है कि हिंदु गोमांस खाते थे और सोम रस पान करते थे तो आज तुम इहका विरोध क्यो कर रहे हो ? 


अद्रिणा ते मन्दिन इन्द्र तूयान्त्सुन्वन्ति सोमां पिवसि त्वमेषाम्।  
पचन्ति ते वृषभान् अत्सि तेषां पृक्षेण यन्मघवन्हूयमानः॥

अर्थात हे इन्द्र (आत्मा या राजा)! तुम्हारे लिए प्रशंसक वैद्य या पुरोहितों द्वारा प्रेरित तुम्हारी प्रसन्नता लाने वाले पारिवारिक लोग या राजकर्मचारी रसमय सोमरस तैयार करते हैं। तुम उस सोमरस का पान करते हो। तुम्हारे लिए सुख प्रदान करने वाली भोग सामग्री तैयार की जाती है। हे मघवन् (आत्मा या राजा)! स्नेहपूर्ण संबंध द्वारा निमंत्रित होकर तुम उस भोग को ग्रहण करते हो।

जब आत्मा शरीर में आती है, तब उसे अनुमोदन करने वाले वैद्य और प्रसन्नता देने वाले पारिवारिक लोग कई रसों और भोग पदार्थों को आत्मा के लिए तैयार करते हैं और स्नेहपूर्वक खिलाते हैं, जिससे शरीर पुष्ट होता है और राजा राजपद पर विराजमान रहता है। तब उसके प्रशंसक पुरोहित और प्रसन्नता देने वाले राजकर्मचारी सोम आदि औषधियों के रस और भोग की तैयारी करते हैं। आत्मा, स्नेहपूर्वक आदर पाकर इसका सेवन करती है। यहाँ "वृषभान्" शब्द सुख प्रदान करने वाली भोग सामग्री को सूचित करता है, जो एक उपमा (metaphor) है, जो यह दर्शाता है कि जैसे मुनि ऋषि श्रेष्ठ कामधेनु से लाभान्वित होते थे। 

बहरहाल वेद मंत्र का भाव इसके छंद से जाना जाता है, और यह मंत्र त्रिष्टुप् छंद में लिखा गया है। छंद शास्त्र और वेदांग निरुक्त शास्त्र के अनुसार, त्रिष्टुप् छंद का उपयोग केवल बल, दंभ, शक्ति, राजसत्ता आदि प्रसंगों या भावों के लिए किया जाता है। इसलिए, यहाँ वृषभ शब्द का अर्थ छंद के अनुसार बल या शक्ति है। यदि यह वृषभ शब्द गायत्री या अनुष्टुप् छंद में लिखा जाता, तो इसका अर्थ नामवाचक, पूजा-संबंधी, या अनुदान-संबंधी होता। उदाहरण के लिए:

"चत्वारि शृंगा त्रयो अस्य पादा द्वे शीर्षे सप्त हस्तासो अस्य।  
त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महो देवो मर्त्याँ आ विवेश ॥ ४.५८.३ ॥”
(इसके चार सींग हैं, तीन इसके पैर हैं, दो सिर हैं, और सात इसके हाथ हैं।  
तीन प्रकार से बंधा हुआ यह वृषभ (शक्ति/बल) गर्जना करता है, यह महान देवता मृत्यों (मनुष्यों) में प्रवेश करता है।)

यहाँ भी वृषभ का अर्थ शक्ति या बल है, और यह भी त्रिष्टुप् छंद में है। अतः यहां वृषभ का अर्थ वृष नामवाला जानवर नहीं बल्कि बल या शक्ति हीं है । 

उसी प्रकार कुछ लोग दावा करते हैं कि ऋग्वेद के मंडल 10, सूक्त 121 में यज्ञ के दौरान गोमांस पकाने की बात लिखी गई है। लेकिन मंडल 10, सूक्त 121 के मंत्रों में ऐसा कुछ नहीं लिखा है। 

मंत्र (मंडल 10, सूक्त 121) में कहा गया है

"यद् विश्वं संनादति यज्ञं नो अस्मात् पाकः समिद्धः।  
तस्मै विश्वं नमतु विश्वम् इन्द्राय ब्रह्म नमति ब्रह्मणे च॥"

अर्थात : जो इन्द्र समस्त विश्व को नियंत्रित करते हैं, जो यज्ञ हमसे निष्कपट भाव से संपादित होता है और जो समिधा द्वारा प्रज्ज्वलित है, उन्हें (इन्द्र को) समस्त विश्व नमस्कार करता है, ब्रह्म (दिव्य शक्ति) उन्हें और ब्रह्मण को नमस्कार करता है।

इस मंत्र में इन्द्र को यज्ञ के माध्यम से पूजा करने, समग्र विश्व के नमस्कार और ब्रह्म की शक्ति को उनके प्रति समर्पित करने की बात वर्णित है। 

 ऋग्वेद में इन्द्र देवताओं के राजा हैं, वे वज्रधारी, शक्तिशाली और विश्व के नियंत्रक के रूप में पूजित हैं। वे न केवल युद्ध और विजय के प्रतीक हैं, बल्कि विश्व के समन्वय और व्यवस्था के प्रतिनिधि भी हैं। इस मंत्र में इन्द्र को एक सर्वव्यापी शक्ति के रूप में चित्रित किया गया है, जिन्हें समग्र विश्व और ब्रह्म शक्ति नमस्कार करती है। 

मंत्र में यज्ञ को महत्व बताया गया है, जो वैदिक संस्कृति में मनुष्य और देवताओं के बीच संबंध स्थापित करने का मुख्य माध्यम माना जाता था। “पाकः समिद्धः” शब्द एक निष्कपट और शुद्ध यज्ञ को दर्शाता है, जो अग्नि में समिधा द्वारा प्रज्ज्वलित होता है। यह दर्शाता है कि यज्ञ केवल बाह्य आचार नहीं, बल्कि एक आंतरिक समर्पण है, जो मनुष्य की शुद्ध भावना और कर्म को प्रतिबिंबित करता है। 

“तस्मै विश्वं नमतु” वाक्य यह दर्शाता है कि समग्र विश्व इन्द्र को नमस्कार करता है। यह इन्द्र की सर्वव्यापकता और सर्वोच्चता को दर्शाता है। वैदिक दृष्टिकोण में, विश्व के सभी तत्व—प्रकृति, जीवजगत, और दैवी शक्ति—एक सामंजस्यपूर्ण व्यवस्था में इन्द्र के अधीन कार्य करते हैं। यह नमस्कार केवल पूजा नहीं, बल्कि विश्व की एकता और समन्वय का प्रतीक है। 

 मंत्र के अंत में “ब्रह्म नमति ब्रह्मणे च” कहा गया है। यहाँ “ब्रह्म” का अर्थ है दिव्य शक्ति या वैदिक मंत्रों की शक्ति, और “ब्रह्मणे” का अर्थ है सृष्टि की मूल शक्ति या सर्वोच्च सत्ता। यह स्पष्ट करता है कि इन्द्र केवल विश्व के नियंत्रक नहीं, बल्कि सृष्टि की मूल शक्ति से भी संबंधित हैं। यह वाक्य वैदिक दर्शन के एकत्ववादी दृष्टिकोण को दर्शाता है, जहाँ सभी शक्तियाँ एक सर्वव्यापी सत्ता की ओर नमस्कार करती हैं। 

उसी प्रकार कुछ लोग ऋग्वेद संहिता मंडल 10, सूक्त 180 में यह दावा करते हैं कि इन्द्र ने वृष (बैल) की हत्या कर उसे खाया और सोमरस पिया। लेकिन मंडल 10, सूक्त 180 में वास्तव में तीन मंत्रों में इन्द्र की पूजा की गई है। इसमें वृष हत्या या मांस भक्षण का कोई उल्लेख नहीं है। लेकिन इन तीनों मंत्रों की गलत व्याख्या कर अपप्रचार किया जा रहा है। 

प्रथम मंत्र:

इन्द्र सोमं पिव मघवन् शतक्रतो।  
त्वां हि सत्यं मदन्ति सुतासो दीदिहि नः॥

अर्थ: हे मघवन् (धनी और महान) इन्द्र, हे शतक्रतु (अनेक महान कार्य करने वाले), तुम सोमरस का पान करो। सुता (निष्पादित) सोम तुम्हें सत्य में आनंदित करता है। हमें तुम दीप्ति और समृद्धि प्रदान करो। 

द्वितीय मंत्र:

त्वां सुतासो मदन्ति शमीनां च मघवन्।  
त्वां वृषाणां वृषभ प्र योधसि॥

अर्थ: हे मघवन्, श्रमिकों द्वारा निष्पादित सोमरस तुम्हें आनंदित करता है। हे वृषभ (बलवान वृष), तुम वृषों (शक्तिशाली सैन्य या शक्ति) में युद्ध में अग्रणी होकर शत्रुओं का नाश करते हो। 

तृतीय मंत्र:

सोमं सोमपते पिव शक्र नो मनांसि च।  
इन्द्र त्वा सुष्टुती ममद्तु॥

अर्थ: हे सोमपति (सोम के स्वामी) इन्द्र, तुम सोमरस का पान करो। हे शक्तिशाली, हमारे मन की इच्छाओं को पूर्ण करो और हमारी सुंदर स्तुति तुम्हें आनंदित करे। 

मंत्रों का भावार्थ: इन तीनों मंत्रों का अर्थ अलग है, और भावार्थ और भी गहरा है। यहाँ सोमरस संभवतः अमृत या दैवी ज्ञान का प्रतीक है। इन्द्र का सोमपान मानव की आध्यात्मिक उन्नति और अज्ञान से मुक्ति का प्रतीक हो सकता है। 

इसलिए, ऋग्वेद के मंत्रों की गलत संख्या व गलत अर्थ व्याख्या करके जो लोग हिंदुओं और हिंदू धर्म का अपमान कर रहे हैं, उन्हें दंडित किया जाना चाहिए । 

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