कई लोग जब ओड़िआ भाषा आंदोलन का नाम सुनते हैं तो सोचते हैं कि शायद यह आंदोलन भारत विरोधी रही होगी पर ऐसा नहीं है । ओड़िआ भाषा आंदोलन कभी भारत विरोधी नहीं था। यह आंदोलन 19वीं शताब्दी में शुरू हुआ और इसका मुख्य उद्देश्य ओड़िया भाषा और संस्कृति की रक्षा करना तथा बिखरे हुए ओड़िशा को एक प्रशासनिक इकाई के रूप में एकजुट करना था। इस दौरान ओड़िया लोगों ने बंगाली, हिंदी, और तेलुगु भाषाओं के प्रभाव के खिलाफ शांतिपूर्ण तरीके से अपनी मांगें उठाईं, बिना किसी हिंसा या अन्य समुदायों के खिलाफ वैमनस्य के।
भारत के इतिहास में भाषा आंदोलन एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहे हैं, जो विभिन्न समुदायों की सांस्कृतिक और भाषाई पहचान को संरक्षित करने और बढ़ावा देने के लिए लड़े गए। इनमें से एक सबसे प्रारंभिक और शांतिपूर्ण आंदोलन था ओड़िआ भाषा और संस्कृति को बचाने का आंदोलन, जो 19वीं शताब्दी में शुरू हुआ। यह आंदोलन न केवल ओड़िआ भाषा की रक्षा के लिए था, बल्कि ओड़िशा के एकीकरण और इसकी सांस्कृतिक पहचान को स्थापित करने के लिए भी था।
1866 के आसपास, जब भारत ब्रिटिश शासन के अधीन था, ओड़िशा की सांस्कृतिक और भाषाई पहचान पर संकट मंडरा रहा था। उस समय ओड़िशा प्रशासनिक रूप से तीन हिस्सों में बंटा हुआ था: कुछ हिस्से बंगाल प्रेसीडेंसी, कुछ मद्रास प्रेसीडेंसी, और कुछ सेंट्रल प्रोविंस के अधीन थे। इस विभाजन के कारण ओड़िआ भाषा और संस्कृति पर बंगाली, हिंदी, और तेलुगु भाषाओं का प्रभाव बढ़ रहा था। विशेष रूप से, बंगाली भाषा को स्कूलों और प्रशासन में थोपा जा रहा था, जिससे ओड़िया भाषा की उपेक्षा हो रही थी। दक्षिण ओड़िशा में तेलुगू और पश्चिम ओडिशा में हिन्दी थोपा जा रहा था ।
इसके जवाब में, ओड़िआ बुद्धिजीवियों, जैसे मधुसूदन दास, गोपबन्धु दास,फकीर मोहन सेनापति, गौरीशंकर राय, और राधानाथ राय जैसे साहित्यकारों और समाज सुधारकों ने ओड़िआ भाषा और संस्कृति को बचाने के लिए एक शांतिपूर्ण आंदोलन शुरू किया। यह आंदोलन न केवल भाषा की रक्षा के लिए था, बल्कि बिखरे हुए ओड़िशा को एक प्रशासनिक इकाई के रूप में एकजुट करने का भी लक्ष्य रखता था।
ओड़िआ भाषा आंदोलन की सबसे उल्लेखनीय विशेषता इसकी शांतिपूर्ण प्रकृति थी। ओड़िआ लोगों ने कभी भी हिंसा, उत्पीड़न, या अन्य समुदायों के खिलाफ वैमनस्य का सहारा नहीं लिया। इसके बजाय, उन्होंने साहित्य, पत्रकारिता, और संगठित बैठकों के माध्यम से अपनी मांगें रखीं। उदाहरण के लिए:
1903 में स्थापित 'उत्कल सम्मिलनी' संगठन ने ओड़िआ भाषा और संस्कृति के संरक्षण के लिए एक मंच प्रदान किया। इसने विभिन्न क्षेत्रों में बिखरे ओड़िया लोगों को एकजुट करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
फकीर मोहन सेनापति जैसे लेखकों ने अपनी रचनाओं के माध्यम से ओड़िआ भाषा को समृद्ध किया और इसे एक सशक्त साहित्यिक भाषा के रूप में स्थापित किया।
ओड़िआ बुद्धिजीवियों ने स्कूलों में ओड़िआ भाषा को लागू करने और स्थानीय प्रशासन में इसका उपयोग बढ़ाने की मांग की।
इस आंदोलन का परिणाम 1936 में हुआ, जब ओड़िशा को एक अलग प्रांत के रूप में मान्यता दी गई। यह भारत में भाषाई आधार पर गठित पहला प्रांत था, जो ओड़िआ लोगों के दशकों के शांतिपूर्ण संघर्ष का परिणाम था।
1935 में, साइमन कमीशन ने ओड़िशा के नेताओं को एक अलग देश 'कलिंग' बनाने का प्रस्ताव दिया था। यह प्रस्ताव उस समय के ऐतिहासिक और भौगोलिक संदर्भ में महत्वपूर्ण था, क्योंकि प्राचीन कलिंग साम्राज्य (जो आधुनिक ओड़िशा और इसके आसपास के क्षेत्रों को शामिल करता था) का प्रभाव दक्षिण-पूर्व एशिया तक फैला हुआ था। प्राचीन कलिंग के उपनिवेश, जैसे बर्मा, मलेशिया, फिलीपींस, मालदीव, और श्रीलंका, इसकी समृद्ध सांस्कृतिक और व्यापारिक विरासत के प्रमाण थे।
हालांकि, ओड़िआ नेताओं ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। उनके लिए भारत के साथ एकता और राष्ट्रीय एकीकरण सर्वोपरि था। यह निर्णय उनकी गहरी देशभक्ति को दर्शाता है। इस निर्णय के कारण, हालांकि आधा कलिंग क्षेत्र विभिन्न राज्यों में बंट गया, फिर भी ओड़िया लोगों ने भारत विरोधी भावना नहीं अपनाई। इसके बजाय, उन्होंने भारत के भीतर अपनी पहचान को मजबूत करने का प्रयास किया।
दक्षिण भारत में, विशेष रूप से तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, और कर्नाटक जैसे राज्यों में, भाषा आंदोलनों ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हालांकि, इन आंदोलनों में कई बार हिंसा, विरोध प्रदर्शन, और विभाजनकारी राजनीति देखी गई।
1960 के दशक में तमिलनाडु में हिंदी को राष्ट्रीय भाषा के रूप में लागू करने के खिलाफ बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए, जिनमें हिंसा और संपत्ति को नुकसान पहुंचाने की घटनाएं भी शामिल थीं। भाषाई आधार पर आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के गठन में भी क्षेत्रीय अस्मिता और अलगाववादी भावनाएं सामने आईं।
इनके विपरीत, ओड़िआ आंदोलन में हिंसा या अन्य समुदायों के खिलाफ वैमनस्य का अभाव था। ओड़िआ लोगों ने अपनी मांगों को शांतिपूर्ण और रचनात्मक तरीके से रखा, जो उनकी देशभक्ति और समावेशी दृष्टिकोण को दर्शाता है।
ओड़िआ लोगों की देशभक्ति का एक प्रमुख उदाहरण यह है कि उन्होंने भारत के साथ एकता को प्राथमिकता दी, भले ही इसके परिणामस्वरूप उनकी कुछ क्षेत्रीय और सांस्कृतिक हानि हुई। आधुनिक ओड़िशा के गठन के बाद भी, जिन क्षेत्रों में ओड़िआ भाषी लोग रहते हैं, वे विभिन्न राज्यों (जैसे झारखंड, पश्चिम बंगाल, और आंध्र प्रदेश) में बंट गए। फिर भी, ओड़िआ लोगों ने भारत विरोधी रवैया नहीं अपनाया।
यह देशभक्ति न केवल उनके ऐतिहासिक निर्णयों में, बल्कि उनके सांस्कृतिक और सामाजिक मूल्यों में भी झलकती है। ओड़िशा के लोग अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत, जैसे जगन्नाथ संस्कृति, को भारत की एकता और विविधता के प्रतीक के रूप में देखते हैं।
ओड़िआ भाषा आंदोलन भारत के इतिहास में एक अनूठा उदाहरण है, जो शांतिपूर्ण संघर्ष और देशभक्ति का प्रतीक है। इस आंदोलन ने न केवल ओड़िआ भाषा और संस्कृति को बचाया, बल्कि भारत के भीतर एक एकजुट ओड़िशा की नींव रखी। साइमन कमीशन के 'कलिंग' प्रस्ताव को ठुकराकर, ओड़िया नेताओं ने भारत के साथ अपनी एकता को प्राथमिकता दी, जो उनकी गहरी देशभक्ति को दर्शाता है।
दक्षिण भारत के कुछ भाषा आंदोलनों के विपरीत, जहां विभाजनकारी राजनीति और हिंसा देखी गई, ओड़िआ आंदोलन ने रचनात्मक और शांतिपूर्ण दृष्टिकोण अपनाया। इसे ओड़िआ लोगों की कमजोरी के रूप में देखा जाए या उनकी ताकत के रूप में, यह निश्चित है कि ओड़िशा के लोग अपने देश भारत से गहरे प्रेम करते हैं। यह प्रेम और एकता आज भी ओड़िशा की संस्कृति और समाज में जीवंत है।
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