प्राचीन मेसोपोटामिया के धूल भरे मैदानों में सूर्य अपनी सुनहरी किरणों से धरती को प्रकाशित कर रहा था। वहाँ एक सुंदर और भव्य नगरी उभर रही थी, जिसे लोग उरुक नगरी के नाम से जानते थे। इस महान नगरी की ऊँची प्राचीरें स्वर्ग तक फैली हुई थीं। उरुक का राजा था गिलगमेश। वह एक दैवी पुरुष था, जिसके शरीर में दो-तिहाई दैवी रक्त और एक-तिहाई मानवीय आत्मा प्रवाहित थी। उसकी ऊँचाई वृक्ष-सी, शक्ति तूफान-सी, और सौंदर्य सुबह के आकाश-सा था। लेकिन उसके हृदय में अहंकार एक काले पहाड़ की तरह जमा था। वह अपनी प्रजा पर कठोर शासन करता, युवकों को युद्ध में भेजता, और अपनी इच्छा से सबके जीवन को नियंत्रित करता।
प्रजा का आक्रोश देवताओं के कानों तक पहुँचा। आकाश में विराजमान देवी अरुरु ने यह शिकायत सुनी और गिलगमेश को नियंत्रित करने का निश्चय किया। अरुरु ने मिट्टी और हवा से एक नए प्राणी का सृजन किया, जिसका नाम रखा गया एंकिदु। एंकिदु जंगल का पुत्र था, उसका शरीर पशुओं की तरह रोमश था और मन निर्मल व मुक्त। वह जंगल में हिरनों और शेरों के साथ दौड़ता था, लेकिन एक युवती, शामहत, ने उसे मानव सभ्यता के पाठ सिखाए और उरुक नगरी ले आई।
उरुक की सड़कों पर गिलगमेश और एंकिदु आमने-सामने हुए। एक भयंकर युद्ध शुरू हुआ—पत्थर चूर-चूर हुए, धूल उड़ी, और नगरी काँप उठी। लेकिन अंत में, जब दोनों थक गए, तो उन्होंने एक-दूसरे की शक्ति देखकर हँस दिया। उस क्षण से वे अटूट मित्र बन गए, जैसे मेसोपोटामिया में टिगरिस और यूफ्रेट्स नदियाँ मिलकर एक हो जाती हैं।
गिलगमेश के मन में एक नई महत्वाकांक्षा जगी—वह अपने नाम को अमर करना चाहता था। उसने अपने मित्र एंकिदु से कहा, “आओ, हम देवदार के जंगल जाएँ, जहाँ राक्षस हम्बाबा रहता है। उसे मारकर हम विश्व में नाम कमाएँगे।” एंकिदु सहमत हुआ, और दोनों निकल पड़े। जंगल में हम्बाबा की गर्जना पहाड़ों को हिला देती थी, उसकी अग्निमय साँसें वृक्षों को जला देती थीं। लेकिन गिलगमेश की तलवार और एंकिदु के साहस के सामने हम्बाबा ढेर हो गया। वे विजयी होकर लौटे, लेकिन देवता बहुत नाराज़ हुए।
एक दिन, सौंदर्य और युद्ध की देवी इश्तार ने गिलगमेश को देखकर मोहित हो गई। उसने गिलगमेश से प्रेम प्रस्ताव रखा, लेकिन गिलगमेश ने उसके अतीत को याद करते हुए कहा, “तुमने अपने प्रेमियों को धोखा दिया है, मैं कैसे भरोसा करूँ कि तुम मुझे धोखा नहीं दोगी?” क्रोध में इश्तार स्वर्ग गई और देवता अनु से स्वर्ग के भयानक सांड, गुगलन्ना, को धरती पर भेजने को कहा। वह सांड उरुक में आया और घर-मकानों को तहस-नहस कर दिया, लेकिन गिलगमेश और एंकिदु ने मिलकर उसे मार डाला। जनता ने उत्सव मनाया, लेकिन देवताओं के मन में क्रोध दोगुना हो गया।
देवताओं ने सभा बुलाई और निर्णय लिया—एंकिदु को मरना होगा। दैवी कोप से एंकिदु को एक रोग ने जकड़ लिया। दिन बीतते गए, एंकिदु कमज़ोर पड़ गया, और गिलगमेश उसके पास बैठकर आँसू बहाने लगा। “मेरे भाई, तुम मुझे छोड़कर क्यों जा रहे हो?” वह चिल्लाकर बोला, जब एंकिदु की आँखें हमेशा के लिए बंद हो गईं। गिलगमेश का हृदय टुकड़े-टुकड़े हो गया, और उसके मन में एक नया भय जन्मा—मृत्यु का भय।
गिलगमेश ने अमरता का रहस्य जानने की ठानी और जंगल, पहाड़, और समुद्र पार करके उत्नपिश्तिम नामक एक वृद्ध की खोज में निकल पड़ा। उत्नपिश्तिम एकमात्र मानव थे, जिन्हें महाप्रलय से बचने के बाद देवताओं ने अमरता दी थी।
उत्नपिश्तिम शुरुन्ना नगरी के निवासी थे, एक साधारण मानव, जिनका जीवन मिट्टी में काम करने, परिवार पालने, और देवताओं की प्रार्थना में बीतता था। लेकिन उनका साधारण जीवन एक महान घटना का साक्षी बनने वाला था, जिसने उन्हें अमरता के पथ पर ले गया।
एक दिन, दैवी संदेश से आकाश काले मेघों से ढक गया। अनु और एनलिल जैसे देवता मानवों के कोलाहल और अहंकार से क्षुब्ध होकर एक भयानक निर्णय ले चुके थे—वे पृथ्वी को महाप्रलय में नष्ट कर देंगे। लेकिन जल के देवता एआ ने मानवों पर दया दिखाई। उन्होंने उत्नपिश्तिम को स्वप्न में दर्शन देकर कहा, “हे उत्नपिश्तिम, तुम्हारी नगरी जल्द ही जल में डूब जाएगी। एक बड़ी नौका बनाओ, अपने परिवार और सभी जीव-जंतुओं को लेकर जीवन की रक्षा करो।”
उत्नपिश्तिम आश्चर्यचकित रह गए, लेकिन उन्होंने देवताओं का आदेश माना। उन्होंने दिन-रात मेहनत कर एक विशाल नौका बनाई—एक चौकोर आकार का जहाज़, जिसकी ऊँचाई और चौड़ाई एक छोटे पहाड़ जैसी थी। उन्होंने नौका में कई कोठरियाँ बनाईं और उसे राल और तेल से जलरोधी कर दिया। नगरी के लोग उन्हें पागल समझकर हँसे और ताने मारे, लेकिन उत्नपिश्तिम चुपचाप अपना काम करते रहे। अंत में, उन्होंने अपनी पत्नी, पुत्र, पुत्री, और सभी जीव-जंतुओं—हिरन, शेर, पक्षी, और कीट-पतंगों को नौका में चढ़ाया। जैसे ही द्वार बंद हुआ, आकाश फट पड़ा।
वर्षा शुरू हुई—एक अंधेरी, भयावह वर्षा, जिसने दिन और रात को एक कर दिया। नदियाँ उफन पड़ीं, पहाड़ डूब गए, और शुरुन्ना नगरी जल में बह गई। छह दिन और छह रात तक जल ने पृथ्वी को निगल लिया। उत्नपिश्तिम नौका में बैठे सुनते रहे—बाहर लोगों की चीखें, घर टूटने की आवाज़ें, और हवा की गर्जना। सातवें दिन सब शांत हो गया। उन्होंने द्वार खोला और देखा—चारों ओर केवल जल ही जल था, जीवन का कोई चिह्न नहीं।
दिन बीतते गए। उत्नपिश्तिम ने स्थल की खोज में एक कबूतर छोड़ा, लेकिन वह लौट आया। फिर एक कौआ छोड़ा, वह भी लौट आया। अंत में, एक छोटा पक्षी छोड़ा, जो वापस नहीं लौटा। उत्नपिश्तिम समझ गए कि कहीं न कहीं स्थल ज़रूर है। कई दिनों बाद, उनकी नौका निसिर पर्वत के शिखर पर अटक गई। उत्नपिश्तिम नौका से उतरे, गीली मिट्टी पर पैर रखा, और देवताओं को धन्यवाद देने के लिए एक वेदी बनाई। उन्होंने अग्नि जलाई और धूप चढ़ाई, जिसकी सुगंध आकाश तक गई।
देवता यह देखकर आए। एनलिल पहले क्रोधित हुए, क्योंकि वे मानव वंश को नष्ट करना चाहते थे। लेकिन एआ ने उन्हें शांत किया और कहा, “इस मनुष्य ने तुम्हारी इच्छा मानकर जीवन के बीज की रक्षा की है।” एनलिल ने उत्नपिश्तिम को देखा—उनकी शांत आँखें, काँपते हाथ, और नम्र चेहरा। वे दया से भर गए। उन्होंने उत्नपिश्तिम और उनकी पत्नी को आशीर्वाद देते हुए कहा, “तुम दोनों अब अमर हो। तुम एक दूरस्थ द्वीप पर रहोगे, जहाँ सामान्य मनुष्य कभी नहीं पहुँच सकते।”
उत्नपिश्तिम और उनकी पत्नी उस द्वीप पर चले गए। वह द्वीप एक शांत, सुंदर स्थान था, जहाँ समुद्र की लहरें और आकाश का नीला रंग एक-दूसरे में मिलते थे। वहाँ उन्होंने जीवन की स्मृतियों और महाप्रलय की कहानी के साथ कई दिन बिताए। कई शताब्दियों बाद, जब गिलगमेश अमरता की खोज में उनके द्वार पर आए, उत्नपिश्तिम ने उनका सामना किया। उनके चेहरे पर समय की रेखाएँ नहीं थीं, लेकिन आँखों में गहरा दुख और ज्ञान छिपा था।
गिलगमेश को देखकर उत्नपिश्तिम बोले, “मेरी अमरता एक उपहार है, जो देवताओं ने स्वेच्छा से मुझे दिया। मैंने कभी अमरता नहीं माँगी। मैंने अपने सभी मित्रों, परिजनों, और अपनी मातृभूमि शुरुन्ना के विनाश को देखा है। मैं जीवित हूँ, लेकिन अकेला। तुम जीवन को स्वीकार करो, क्योंकि इसकी सीमा (मृत्यु) ही इसे मूल्यवान बनाती है।” उनकी आवाज़ में एक कोमल दुख था, जैसे वे स्वयं इस अमरता का बोझ महसूस कर रहे हों। उत्नपिश्तिम ने फिर कहा, “अमरता तुम्हारे लिए नहीं है। मनुष्य का जीवन एक नदी की तरह है—यह बहता है और एक निश्चित स्थान पर समुद्र में मिल जाता है।” लेकिन गिलगमेश की ज़िद देखकर उन्होंने एक रास्ता दिखाया—समुद्र तल में एक पौधा है, जो यौवन लौटा सकता है।
गिलगमेश ने समुद्र में गोता लगाकर वह पौधा हासिल किया। उनके मन में आशा की किरण जली। लेकिन लौटते समय, एक रात जब वे एक नदी किनारे विश्राम कर रहे थे, एक साँप ने चुपके से वह पौधा चुराकर खा लिया। साँप ने अपनी केंचुली उतारी और नया हो गया, और गिलगमेश निराश रह गए। उन्होंने आकाश की ओर देखकर रोया, लेकिन उनके मन में एक नई चेतना जगी।
अंत में, वे उरुक नगरी लौटे। नगरी की प्राचीरों को देखकर उन्होंने समझा—अमरता शरीर में नहीं, कर्मों और स्मृतियों में छिपी है। उन्होंने अपने जीवन को स्वीकार किया, और उनका नाम इतिहास के पत्थरों पर अंकित हो गया।
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यह थी गिलगमेश की कहानी—मेसोपोटामिया के एक महान राजा की, जिसने मृत्यु को जीतने की चाह में जीवन का मर्म खोज लिया।
एपिक ऑफ गिलगमेश एक सुमेरी पुराण-कथा है, जो प्राचीन मेसोपोटामिया (आधुनिक इराक) की संस्कृति का हिस्सा है।
- गिलगमेश : उरुक नगरी का महान राजा, जो दो-तिहाई दैवी और एक-तिहाई मानवीय गुणों का स्वामी था। वह शक्तिशाली और सुंदर, लेकिन शुरू में अहंकारी और कठोर शासक था। एंकिदु के साथ दोस्ती और मृत्यु का भय उसे जीवन का मर्म सिखाता है। गिलगमेश नाम का एक वास्तविक राजा मेसोपोटामिया में 2900 से 2700 ईसा पूर्व के बीच रहा होगा, ऐसा शोधकर्ता अनुमान लगाते हैं। संभवतः इस वास्तविक राजा के नाम पर यह महाकाव्य रचा गया, हालाँकि यह स्पष्ट नहीं है।
-एंकिदु: देवी अरुरु द्वारा मिट्टी और हवा से बनाया गया एक जंगली मनुष्य। वह शक्तिशाली, निर्मल मन का स्वामी था और गिलगमेश का अटूट मित्र बनकर उसे मानवीय गुण सिखाता है। देवताओं के शाप से उसकी मृत्यु होती है।
-अरुरु: सुमेरी सृजन देवी, जिसने गिलगमेश को नियंत्रित करने के लिए एंकिदु का सृजन किया।
- शामहत: एक मंदिर की पुजारिन, जिसने एंकिदु को सभ्य बनाकर मानव सभ्यता से परिचित कराया।
-उरुक: प्राचीन मेसोपोटामिया का एक प्रमुख सुमेरी नगर-राज्य, जो गिलगमेश की राजधानी थी। यह अपनी ऊँची प्राचीरों, मंदिरों, और सभ्यता के केंद्र के रूप में प्रसिद्ध था। वर्तमान में यह दक्षिणी इराक में वारका (Warka) के नाम से एक पुरातात्विक स्थल है।
-देवदार का जंगल (Cedar Forest)**: एक पौराणिक जंगल, जहाँ गिलगमेश और एंकिदु राक्षस हम्बाबा को मारने गए। यह सुमेरी कहानियों में एक रहस्यमय और पवित्र स्थान के रूप में वर्णित है। यह एक पौराणिक स्थान है, इसलिए इसका आधुनिक भौगोलिक स्थान निश्चित नहीं है। कुछ शोधकर्ता इसे लेबनान के देवदार जंगलों से जोड़ते हैं।
-शुरुन्ना: उत्नपिश्तिम की नगरी, जहाँ वे महाप्रलय से पहले रहते थे। यह मेसोपोटामिया का एक प्राचीन सुमेरी नगर था। वर्तमान में यह दक्षिणी इराक में टेल फारा (Tell Fara) के नाम से एक पुरातात्विक स्थल है।
-निसिर पर्वत: महाप्रलय के बाद उत्नपिश्तिम की नौका जिस पर्वत पर अटकी थी। यह कहानी में एक पौराणिक स्थान के रूप में उल्लिखित है। इसका निश्चित भौगोलिक स्थान अस्पष्ट है। कुछ शोधकर्ता इसे इराक के कुर्दिस्तान क्षेत्र में पिरामाग्रुन पर्वत से जोड़ते हैं, लेकिन यह निश्चित नहीं है।
-दूरस्थ द्वीप: वह स्थान, जहाँ उत्नपिश्तिम और उनकी पत्नी को देवताओं ने अमरता देकर भेजा। यह एक पौराणिक और रहस्यमय स्थान के रूप में वर्णित है। यह एक काल्पनिक स्थान है, इसलिए इसका आधुनिक भौगोलिक स्थान स्पष्ट नहीं है। कुछ शोधकर्ता इसे फारस की खाड़ी में बहरीन या दिलमुन द्वीप से जोड़ते हैं, लेकिन यह अनिश्चित है।
(महाकाव्य में कुछ छोटी-मोटी घटनाएँ हैं, जिन्हें कहानी को संक्षिप्त रखने के लिए छोड़ दिया गया है।)
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